Friday, 17 December 2021
Friday, 10 December 2021
Un-knitted!
Reminiscences from my diary
Dec 10, 2021
Friday 02:00 pm
ORRB, GS, Bangalore
कभी कभी कुछ यूँ होता है कि मज़बूत, कसी हुई गिरहों का एक छोर किसी ऐसे के हाथ लग जाता है कि धीरे धीरे - धीरे धीरे आप खुलने लगते हैं। पुल के उस पार से धागा खिंचता है और इधर ... इधर गिरहें ढीली पड़ने लगती हैं। गाहे - बगाहे किसी की निजता आपकी निजता तक पहुँचने का सेतु पा जाती है और शुरू हो जाता है पग - पग नपता सफ़र। आपको लगता है आप खुल रहे हैं, परत दर परत सुलझ रहे हैं, आपकी रूह को, आपकी मुश्क़ को आख़िरकार बंद पिटारे से निजात मिलती जा रही है और आप बसंत में घुल रहे हैं।
और यहीं ... बस यहीं आप धोख़ा खा जाते हैं। आप जिसे खुलना समझते हैं, वह हमेशा ही खुलना नहीं होता।
आप असल में उधड़ रहे होते हैं ...
धागा - धागा ..
रेशा - रेशा ..
लम्हा - लम्हा ..
Friday, 15 October 2021
Tuesday, 12 October 2021
Saturday, 9 October 2021
The first evening in Ooty
Reminiscences from my diary
Saturday, Oct 09, 2021
0630 pm
Zostel, Ooty
हवा इतनी सर्द है कि शरीर की सिरहन भी सिहर रही है। मैं हालाँकि जस-का-तस खड़ा हूँ। जैकेट नहीं, टोपी नहीं, मफ़लर नहीं .. बस वही मैरून चैक की पूरी आस्तीन की हल्की गर्म शर्ट, जो पिछले आठ सालों से मेरे साथ - साथ चल रही है, मुझे ओढ़े हुए है। कुछ चीज़ें ऐसे ही, बिलकुल ऐसे ही अचानक आपसे टकराती हैं और बस आपकी हो जाती हैं मानो इनका होना सिर्फ़ और सिर्फ़ आपके लिए ही है। यह चुभती शर्ट भी मुझे हमेशा ऐसी ही लगी। खैर ... डूब चुके सूरज को तलाशती - सी उसकी महीन लाली में रंगी यह कँपकँपाती हवा भी मुझे फिलहाल ऐसी ही लग रही है - अपनी ! सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी मानो मेरी ही राह तक रही थी अब तक और आज जाकर इसे चैन आएगा।
आस - पास के लैंप-पोस्ट जल चुके हैं। लैंप-पोस्ट चाहे कितने भी सुन्दर हों, मुझे कभी अपने नहीं लगे। जिसे भोर नहीं गोधूलि पसंद हो, रश्मियाँ नहीं जुगनू पसंद हों, पसंद हो काले-गहरे बादलों से घिरा आसमान, पसंद हों दिन को दिन में ही रात बनाती घटाएँ, उसे यह कृत्रिम रोशनी पसारते लैंप-पोस्ट कैसे पसंद आएँगे ! इनका जलना, इनका होना मुझे सुकून नहीं देता। सुकून तो मिलता है उस ऊपर टंगे - टंके चाँद से। आज का चाँद बहुत बारीक है, जैसे ईद का चाँद हुआ करता है। और उस पर भी हल्के कोहरे, हल्के फाहों की हल्की चादर। ठिठुरता चाँद, ठिठुरता मैं ... ठिठुरते हम ! चाँद को कह सकता हूँ अपना ! कहता ही हूँ हमेशा ! इसकी तासीर ही ऐसी है कुछ ! कितनों का अपना बना बैठा है यह चाँद, गिनती करने बैठूँ तो तारे कम पड़ जाएँ ! उस पर चाँद पहाड़ों का हो तो चार चाँद लग जाते हैं चाँद में - फिर पहाड़ चाहे हिमालय हों या नीलगिरि !
आसमान में इस समय तीन रंग आपस में खेल रहे हैं - नीला, काला, लाल। पता नहीं कब कौन किस पर हावी हो रहा है ! अभी - अभी तो पिछले पन्ना लिखते समय काला ज़्यादा, नीला कम था, और अब देखो ! बाईं तरफ़ लाल ज़्यादा और दाईं तरफ़ नीला, बीच में काला ठिठोली करता शायद सोच रहा है कि दाएँ जाऊँ या बाएँ या फिर पसरा रहूँ वहाँ जहाँ हूँ !
एक शब्द है अंग्रेज़ी का 'सिल्हूट' जो मुझे हमेशा से ही बहुत पसंद है, तब से जब मुझे इसका मतलब भी ठीक से नहीं पता था ! हिंदी में शायद 'छाया चित्र' कहेंगे। इस समय जहाँ से जहाँ तक भी नज़र दौड़ा रहा हूँ, सिल्हूट ही सिल्हूट हैं - पहाड़ों के, पेड़ों के, झाड़ियों के, घरों के, घरों की छतों के, बिजली के खम्बों के, टॉवरों के, लोगों के - सिर्फ़ सिल्हूट ! मैं सोच रहा हूँ कि जो स्मृतियाँ गाहे - बगाहे आपके मन मानस पर दस्तक देती हैं, देती ही चली जाती हैं, एक शांत पल में उफ़ान ले आती हैं - वे असल में स्मृतियाँ होती हैं या स्मृतियों के सिल्हूट ! अगर सिल्हूट हैं तो क्या उनमें इतना सामर्थ्य है कि वे पूरे के पूरे चेहरे आँखों में उतार पाएँ ; एक पूरा गुज़रा पल, समय, अतीत वैसा का वैसा ही आपके सामने खड़ा कर दें और आप सच में मानने लगें कि आप समय के किसी दूसरे ही आयाम में हैं ? और अगर स्मृतियाँ हैं तो फिर धुँधली क्यों पड़ जाती हैं ? क्यों बीता समय, बीते चेहरे हवा के साथ हवा, धुंध के साथ धुंध, बादल के साथ बादल बन जाते हैं ?
खैर ... बस सोच रहा हूँ ! जवाब नहीं ढूँढ रहा हूँ ! शायद एक उम्र के बाद आप कुछ सवालों को वैसा ही रहने देना चाहते हैं ! नीचे घाटी में रोशनियाँ झिलमिला रही हैं शायद कुछ देर तक इन्हें ही देखता रहूँगा बिना कुछ सोचे, बिना कुछ कहे...
Thursday, 12 August 2021
Sunday, 1 August 2021
Friday, 2 July 2021
The cobweb of memories
Reminiscences from my diary
मैं कई बार अनमनी-सी टीस से बेचैन हो उठता हूँ। बहुत बेचैन ! कभी भी .. किसी भी पहर .. किसी भी जगह .. काम करते वक़्त .. चलते वक़्त .. पढ़ते वक़्त .. कुछ न करते वक़्त .. कभी भी ! पर इस बेचैनी, इस कसक की वजह ढूँढने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। हालाँकि मैं कभी भी बिलकुल सटीक कारण नहीं ढूँढ पाया हूँ। महज़ इतना समझा हूँ कि बात स्मृतियों से जुड़ी है। सहस्र दंश लिए फिरता हूँ इनका ! पर क्यों ? नीलकंठ तो बस एक हो ही होना था ! ऐसे अंतरालों में मैं सोचा करता हूँ कि स्मृतियों के जंजाल का कौन सा तार मेरी छाती पर हिमालय खड़ा करता है; क्या उम्र के साथ ये तार तार-तार हो जाते हैं; क्या मैं वाकई चाहता हूँ कि ये हवा हो जाएँ; हो गयीं `गर ये हवा तो क्या मैं इनसे उपजी टीस के बिना अपनी जिजीविषा सींच पाऊँगा; कहीं ये मात्र भ्रम तो नहीं मानों हो बस मरीचिका; और छलावा ही हैं तो इतनी बार छलने क्यों आती हैं; तो क्या मैं इतने समय से किसी थार को नाप रहा हूँ ... कितने ही सवाल .. कितने ही ऊबड़ - खाबड़ - अनगढ़ सवाल बुन जाते हैं अपने आप ही .. उधड़न हो कभी कोई तो साँस में साँस आए !
छटपटाहट के पशमीने में लिपटा मैं यह भी सोचता हूँ कि इतने भरे मन और मस्तिष्क के साथ क्या हम अपना आज आज की तरह जी पाते हैं या जी सकते हैं ? मैं नहीं मानता क्योंकि मैं अपना आज आज की तरह नहीं जी पाता। ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं करता ! प्रयास शुरू ही करता हूँ कि झपट पड़ता है स्मृतियों का झुण्ड मुझपर मानो कब से घात में हो और धकेल देता है मुझे आज से बहुत परे ! और आज ? आज बेचारा मायूस होकर बीत जाता है और मुझे ठीक से पता भी नहीं चल पाता। कभी-कभी ध्यान जाता है किसी-किसी आज पर पर तब जब वह कल बन चुका होता है। कौंधा जाती है एक नयी स्मृति जो तब बनी थी जब बाकी स्मृतियाँ मुझे भूत में ले गयीं थीं। खेल है .. अजीब-सा खेल .. जो बस चले जा रहा है, और मैं हारे जा रहा हूँ ..
लगता है धुँधली सीमाओं वाले चौकोरों की एक बिसात बिछी हुई है, या यूँ कहूँ कि फैली हुई है भूत के आयाम में। सपने कौड़ी हो जाते हैं किसी-किसी नींद ! जब-तब जो सपना बिसात के जिस वर्ग में गिर जाता है, वही स्मृति स्वप्न बन लौट आती है मानो, स्वप्न स्वप्न न हो, बस प्रतिबिम्ब हो स्मृति का !
एक नई कश्मकश दस्तक देती है मेरे ज़हन में। भोर होते-होते या फिर रात के ही किसी पहर की किसी इकाई में सपने अक्सर टूट ही जाया करते हैं। जब कोई गहरा सपना टूटता है तो शायद उतने ही टुकड़ों में बिखर जाता है जितने छिटके हों तारे किसी स्याह रात में !
Saturday, 26 June 2021
Wednesday, 23 June 2021
Tuesday, 15 June 2021
Friday, 14 May 2021
Wednesday, 12 May 2021
Friday, 16 April 2021
Sunday, 28 March 2021
Monday, 15 March 2021
Sunday, 14 March 2021
Monday, 8 March 2021
Sunday, 7 March 2021
Monday, 8 February 2021
Thursday, 4 February 2021
You came! You stayed!