Saturday, 9 November 2013

In thee...

Reminiscences from my diary
November 4, 2013
6 P.M. Bangalore


अक्सर  सोचा करता हूँ -
कैसे तुझे मैं पा जाऊं !
न तेरे पास , न तेरे साथ
मैं तो तुझमें ही -
रहना चाहता हूँ !

चले तू जिस भी राह पर ,
बरगद की छाया बन -
तेरा सुकून पाना चाहता हूँ !
और,
अगर हो -
बंजर मरुस्थल ,
किसी शाद्वल को ढूंढती -
तेरी नज़र बनना चाहता हूँ !
यदि,
मरीचिका के छलावे में -
आ जाये, तू कभी -
तब तेरी तृष्णा जो खोजे-
- वो सलिल बनना चाहता हूँ !

चुने अगर  कोई  नज़्म तू , कभी ,
गुनगुनाने के लिए -
तो उस नज़्म के अक्षर बन -
तेरे होठों पर थिरकना चाहता हूँ !
और,
गाते-गाते
अगर बिगड़ जाये लय -
तो सुरों को पिरोता, संजोता ,
कोई राग बनना चाहता हूँ !

 जब कोई रात बुने -
मसरूफ़ियत से -
तेरी आँखों में नींद का जाल ...
तब एक सुन्दर सपना बन -
उस जाल में, सितारे की तरह -
पिरना चाहता हूँ !
और,
अलसाये से दिन में, कभी,
लग जाये अगर  आँख ,
तब, तेरे कमरे की  दीवार पर -
ढलती धूप बन -
तेरी झपकी में ,
घुलना चाहता हूँ  !

किसी शाम , जब तू,
लौट रहा हो घर ,
और, बादलों ने रचाया हो -
षड़यंत्र कोई -
तब,
तेरे चेहरे से -
धीरे - धीरे सरकती -
बारिश की -
पहली बूँद  बनना चाहता हूँ!

किसी वीरान बीहड़ कानन में -
बौराये मृग सा-
स्वयं को ढूँढता -
कभी तू  चीखे , तड़पे -
तो तेरी नाभि में छिपी -
कस्तूरी बनना चाहता हूँ !
और,
समय की सीमा -
- जब हो समीप,
तब तेरे अक्स में मिलकर -
मोक्ष पाना चाहता हूँ !




Sunday, 3 November 2013

                                                    A NIGHT ...FORLORN!

Reminiscences from my diary
November 01, 2013
1 A.M.
Murugeshpalya, Bangalore

सितम्बर के मौसम की  …
जाते सावन के सलिल से सीली  …
हल्की सर्द रात  …
आँख खुल गयी अचानक -
दो बजे थे  … शायद !
सामने खिड़की पर लगे पर्दे -
और पर्दों पर छपे -
हल्के गुलाबी फूल -
हवा के साथ ,
उड़ने के लिए -
तड़प रहे थे !
पर्दे के पीछे की जाली पर -
पड़ गयी नज़र -
लगा , तू है -
'उन ' हमेशाओं की तरह !
पर फिर लगा , नहीं  …
तू नहीं है -
'इन' हमेशाओं की तरह !

आँखें अभी भी अधमुंदी थी -
और,
यादों के किवाड़ -
खड़क रहे थे -
हवा के साथ -
कभी खुल रहे थे ,
कभी बंद  हो रहे थे !
न जाने कैसी स्मृतियाँ थीं -
और कैसा था उनका जाल -
इस पहर में भी ,
गांठें कसी रहीं !

बाहर अभी भी -
हवा सांय सांय कर रही थी  …
मानो,
इस हल्की सर्द रात में -
ठिठुर रही हो!

मानस , अभी -
तेरी यादों की गलियों से गुज़रता -
किसी नुक्कड़ पर -
आराम करने के लिए ,
ज़रा ठहरा -
तो किसी की बात याद आ गयी !
किस 'किसी' की - याद नहीं आया ,
पर, उस 'किसी' ने कहा था -
यादें अमृत सी होती हैं !
पर  …
ये कैसा अख़लास था -
जो इस पहर के इस क्षण में -
मुझे नीलकंठ बना रहा था !

खिड़की से हटाकर ,
एक नज़र कमरे पर डाली -
दीवार की हर खूँटी पर -
तेरी यादों के ढेर टंगे दिखायी दिए !
कमरे में अँधेरा था !
पता नहीं चल रहा था -
कौन सी याद ,
कौन सी गली ,
कौन सा नुक्कड़ -
किस खूँटी पर था !

ऐसे ही कुछ देर  …
अँधेरे से गुफ्तगू करता रहा -
और जब ऊब गया ,
तो,  फिर से  …
खिड़की की ओर देखने लगा !
सोचा था -
कोई गली तो बंद मिलेगी !
कहीं तो अंत होगा !
पर , न  … तू  …  तुझसे परिभाषित पल -
अनंत - व्योम से !
अविरल - सलिल से !
अन्तर्निहित - संज्ञा से !!

Saturday, 2 November 2013

THAT ANOTHER DAY..!!

Reminiscences from my Diary
October 29, 2013
11:30 P.M.
Murugeshpalya, Bangalore


आज एक बार फिर -
सूर्य का सृजन हुआ !
आज फिर ,  एक चाँद -
- फीका पड़ गया !
कोहरे के झीने कपडे से -
- चेहरा छुपाये ,
आसमान ने -
- लूट लिया निशा का घूंघट  …
… और ,
झड़ गए सभी सितारे !

बिना मेघदूत के ही आज -
- रश्मियों की धूल  उड़ाता -
चल दिया बादलों का कारवां !
सलिल के घड़े , आज फिर ,
टूटते - टूटते रह गए !
धूप के जूनून से -
परछाइओं की काया झुलस गयी !
समय का अर्जुन -
युगों के रथ पर सवार -
आज फिर, कृष्ण की बाट जोहता रहा !
इतिहास का मेहमान ,
चौके से -
- भूखा ही उठ गया !
आँख की कोर में ,
नमी -
- ठहरी ही रही !
आज भी पुरवाई -
अपनी दिशा -
- खोजती रही !

ढलती धूप के कहार ,
फिर से ,
संध्या की डोली लेने निकल पड़े !
आज फिर ,
अपने नीड़ को जाती गौरैया -
- चहचहाना भूल गयी !
आज फिर,
अपने घर को जाती सुंदरिया के -
- गले में बंधी  घंटी -
- नहीं बजी !
शामें नीरव थीं-
आज भी , नीरव ही रही !

और,
धीरे - धीरे  …
थोड़ी हिम्मत करता ,
थोडा घबराता ,
सकुचाता -
चीड़ के ठूंठों से -
फिर झाँकने लगा -
एक और चाँद!


Friday, 19 April 2013

THE UBIQUITOUS YOU.....     for you, bhai..


 
REMINISCENCES FROM MY DIARY.....
November 23, 2012
11:15 P.M.
750, IISc
 
 
वह खुली आँखों से बुनी कल्पना है ,
वह काल का यथार्थ भी !
वह  'मेघदूत' का बादल है ,
वह शिवानी की 'कृष्णकली ' भी !
वह पन्नों में दबा अनकहा इतिहास है ,
वह सपनों से सजता भविष्य भी !
वह चंद्रशेखर का सौंदर्य है ,
वही शिव का तांडव भी !
कभी मस्जिद से आती अजान की आवाज़ है वह ,
वही मंदिर का शंख भी !
वह माँ की लोरी में छिपा वात्सल्य है ,
वही अल्हड़ उन्स भी !
मिलन की मुस्कान है वह ,
वही विरह का आंसू भी !
वह पहली बरखा की खुशबू है ,
वह चटकती कलि का सौरभ भी !
वह बचपन की नाव है कागज़ की ,
वह झुर्रियों की लाठी भी !
वह कृष्ण है , वह स्वाति भी ,
वह इन्द्रधनुष को सजाती तूलिका भी !
वह मेघ - मल्हार पुरवाई सावन की ,
वह पतझड़ का ठूंठ भी !
वह बेरहम दुआ है , अनसुनी सदा है ,
वही अधूरी कविता भी !
वह सुर है , राग है , स्पंदन है, जीवन है ,
वह सत्य , शिव , और सुन्दर भी !
वह अग्नि का ताप है ,
वह पृथ्वी का धीर भी !
वह हवा , वही आकाश ,
वह शांत - विकराल सलिल भी ..!
 रश्मियों से बुनी धूप है वह ,
वह अलसाई - सी शाम भी !
 
जितना सोचता हूँ -
उतना पाता हूँ -
"वह" - न पास, न साथ -
"वह" तो मुझ में ही है कहीं -
श्वास की तरह ...
संज्ञा की तरह ...
अस्तित्व की तरह ....!!!
 
 
 
 
 
 
 
 

Sunday, 14 April 2013

 THE MYSTIC PANORAMA...



Reminiscences from my diary

December 3, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


काफ़ी वक़्त बीत गया था ...
पर , वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था कि -
- उस पिटारे को खोलूँ -
टटोलूं -
धूल चढ़ती जा रही थी , वक़्त की ही -
उस पर ...!
पर ... आज ...
वक़्त ने मौका दे ही दिया ,
अनजाने में ही सही ...
और ,
मेरे हाथ से वह पिटारा छूट गया ,
और ,
उस पिटारे का सभी सामान -
बिखर गया छन से !
झीनी - सी रोशनी -
- छिपी हुई थी उस में -
भोर की रोशनी -
कुछ पीली ... कुछ लाल ...
पेड़ों से छनकर आती ,
और आँखों में समां जाती !
बीच में बिखरे हुए थे ,
कुछ अल्फ़ाज़ ...
शायद किसी बेतक़ल्लुफ़ नज़्म से टूटे थे ,
या फिर -
किसी मुक्तक छंद में पिरने की राह देख रहे थे !
दो - तीन अम्बियाँ भी थीं ,
शायद कच्ची , या ,
अधपकी -
जो कभी ,
निदाघ की दोपहरी में -
आम की कोटर में छिपाई थीं !
साथ ही बंद पिटारे से ,
आज़ाद हो गयी -
- संदली - सी महक़ !
 शायद सुर्ख़ - से , सूखे - से फूलों की थी ,
कौन -से फूल थे , याद नहीं ,
पर थी बहुत जानी - पहचानी - सी !
महक के साथ ही -
रु -ब- रु हो गया उस बेचैनी से -
जो कई ज़मानों से कैद थी -
इस सुन्दर पिटारे में !
पर कैसी बेचैनी थी , किस के लिए थी ,
न तब पता था , न ही आज पता है !
कुछ कागज़ के टुकड़े भी थे -
शायद चिट्ठियों के फटे लिफ़ाफ़े थे -
हवा के साथ इधर उधर उड़ रहे थे !
एक - दो पर कुछ निशान से दिखे !
एक टुकड़ा उठाकर कुछ टटोलना चाहा ,
पर , समय की नदी में वह स्याही बह गयी थी !
एक साया भी छिपा हुआ था उसमें मुद्दत से ,
आज वह भी सामने आ गया ,
लम्बा , पतला , चिर - परिचित - सा ...
उसके बाहर आते ही ,
साया साया - सा ये समां हो गया ,
और फिर,
धीरे - धीरे ,
वह साया ही मेरा आसमाँ हो गया ...!!!

















Friday, 15 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(5)

Reminiscences from my diary

January 26, 2012
 5 p.m.
DoMS, IISc




ज़िन्दगी के फ़लसफ़े , ज़िन्दगी की परिभाषा सबके लिए एक - सी कहाँ होती है ! किसी के लिए ज़िन्दगी शुरू से आखिर तक एक कोर कागज़ ही रहती है जिसे किसी लिपि से सजाने का , किसी रंग से भरने का वह "कोई " बहुत मशक्कत करता है और अंत में ज़िन्दगी के सामने घुटने टेक देता है । कभी - कभी ज़िन्दगी किसी के लिए एक रंगीन "कलइडोस्कोप" बन जाती है - एक खुशनुमा चित्र , एक "पैनोरमा" ... मनो जीवन का हर झरोखा एक सुन्दर कल्पना हो या फिर सुन्दर यथार्थ ! पर ... विरले ही ऐसा हो पाता है ! अगर ज़िन्दगी इतनी उदार होती तो बात ही क्या थी !! 

मानव तो बस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ही ज़िन्दगी ढूँढने का सफल - असफल प्रयास करता रहता है । किसी के लिए मंदिर की घंटी और आरती की लौ में ज़िन्दगी बसती है ,  तो किसी के लिए हिमालय की किसी दुर्गम गुफ़ा में .... कोई शिशु की किलकारी में ज़िन्दगी को परिभाषित करता है , तो कोई वृद्ध की झुर्रियों में ... किसी के लिए लाखों का साम्राज्य जीवन है , तो किसी के लिए बूट - पालिश का ढर्रा ... !!
कभी कोई संजोती कल्पनाओं और मरीचिकाओं में ज़िन्दगी पा जाता है , तो कभी- कभी , कोई - कोई दुनिया की भीड़ में ज़िन्दगी को ढूंढता रह जाता है ...!! और इस तरह मनन करते करते यह निष्कर्ष निकाल पाता हूँ कि अक्सर ज़िन्दगी कर्म में परिणत हो जाती है अर्थात व्यक्ति का कर्म ही ज़िन्दगी बन जाता है या यूँ कह लीजिये कि वह अपने कर्म को ही ज़िन्दगी मानने लगता है ... पर, मेरा मन अक्सर इस फ़लसफ़े की विवेचना करता है , विरोध करता है और चूँकि हृदय से अच्छा समीक्षक कोई नहीं ... इसलिए ...इस पर विश्वास करना आवश्यक ही नहीं , अनिवार्य भी है!

और इस प्रकार हृदय यह तो बताता रहता है कि ज़िन्दगी क्या नहीं है , पर कभी यह नहीं बताता कि ज़िन्दगी क्या है ! हृदय भी क्या करे बेचारा , यह ज़िन्दगी रूप ही इतने धारण करती है कि इसे शब्दों में ढालना असंभव - सा लगता है ! हम सदा से यही सुनते हैं कि ईश्वर के असंख्य रूप होते हैं ... पर लगता है कि ज़िन्दगी ने इस मामले में ईश्वर को भी चुनौती दे डाली है !!




                                                                                                                        .....   to be contd.
















Tuesday, 12 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(4)

Reminiscences from my diary

January 24, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


जब कभी बालकनी की ज़मीन पर बिना दरी बिछाये हाथ में गरम कॉफ़ी का मग लिए बैठता हूँ और "मामा" की छाँव में कहीं शून्य में लीं होने का असफ़ल प्रयास करता हूँ , तो अक्सर एक सवाल कौंध जाता है - क्या कभी स्वयं ज़िन्दगी अपने रस को , जिजीविषा को समाप्त कर सकती है ? थोड़ा विरोधाभास है इस वाक्य में ! यह तो वही बात हुई कि क्या कभी भास्कर स्वयं को गहन तिमिर में विलीन कर सकता है ! बाहर से लगता है कि यह कैसी शंका है ! यह तो सवाल ही गलत है । पर जीवन - दर्शन के विभिन्न झरोखों से , अट्टालिकाओं से दृष्टिपात किया जाये तो लगेगा कि यह तो वाकई गहन विचार वाला प्रश्न है जिसका जवाब देना उतना आसान नहीं जितना लगता है । यहाँ पाता हूँ कि ज़िन्दगी स्वयं ही नहीं , इससे जुड़े सवाल भी उतने ही उलझे हुए हैं - भूल भुलैया से !!

इसी तरह मैं ज़िन्दगी से आँख - मिचौली खेलता  रहता हूँ और वक़्त उम्र के पन्ने पलटता रहता है । कभी कभी मन करता है कि ज़िन्दगी को पुकारूं , उसे आवाज़ दूँ ! पर ... क्या ज़िन्दगी सुनेगी ? और अगर सुनेगी तो क्या यह भी वापस मुझे पुकारेगी ? पता नहीं ... बस एक ही बात जान पाता हूँ कि ज़िन्दगी के दिल में इतने सख्त पत्थर हैं कि आवाज़ देने पर जवाब आये या न आये , कम - से- कम अपनी आवाज़ तो लौट आएगी !



                                                                                                          .... to be contd.