Thursday, 1 September 2022

An open invitation


Reminiscences from my diary

Thursday, Sep 01, 2022
09:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


सुनिए !

हताशाओं के उत्सव में 
आप सादर आमंत्रित हैं !

कार्यक्रम की कुछ प्रमुख कड़ियाँ इस प्रकार हैं -

विरह - श्लोकों के मध्य दीप - प्रज्ज्वलन 
***
प्रतीक्षाओं का हास 
***
आकांक्षाओं का दाह 
***
अपेक्षाओं का विसर्जन  
***
उपालम्भों का वाद 
***
अपूर्णताओं की प्रदर्शनी 
***
एकांत का नृत्य 
***
और 
रूदाली स्मृतियों से
पटाक्षेप !
***

यदि आप जीवन और मृत्यु में भेद नहीं रखते हैं 
और न ही भेद मानते हैं मृत्यु और मोक्ष में 
तो 
निमंत्रण 
सविनय 
स्वीकार
करें !

Sunday, 28 August 2022

The thread of longing

Reminiscences from my diary

Sunday, Aug 28, 2022
0915 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता है -
एक डोर है, जिसका एक छोर 
मेरी कलाई पर बँधा है कहीं, शायद 
या शायद 
मेरे पाँव पर
हो सकता है यूँ भी कि 
मेरी साँस की नली के पास हो 
इसकी गाँठ 
खैर 
इससे अंतर नहीं पड़ता कि कहाँ है 
पर है 
कहीं तो है !

दूसरा छोर कहाँ है ?
इस पृथ्वी पर कहीं 
या मेरे हिस्से के आकाश में 
या आकाश गंगा में कहीं 
या उसके भी पार 
किसी और सूरज 
किसी और चन्द्रमा 
किसी और नक्षत्र पर ?
मैं नहीं जानता 
मैं जान ही नहीं पाया !
लेकिन है
इस छोर की ही तरह 
दूसरा छोर भी कहीं तो है !

पता है 
लोग हँसते है 
हैरान होते हैं 
पूछते भी हैं कि कैसा धागा ?
अगर धागा होता तो दिखता !
दिखाओ, कहाँ है धागा ?
अब उन्हें मैं क्या बताऊँ !
इतनी महीन डोर
जिसे मैं खुद ही नहीं बूझ पाया हूँ 
उन्हें क्या ही और कैसे ही दिखाऊँ !

कसक का तार
तड़प का तार 
तार-तार भी हो जाये 
तो भी  दिखता थोड़े ही है !
बस होता है !
होता तो है !
न जाने कितने जन्मों, कितनी योनियों से 
मुझे बाँधे है !

कसक 
कैसी कसक 
किसके लिए 
कोई शै 
कोई चेहरा 
कोई जगह 
कोई घर 
कोई अतीत 
कोई सुख 
कोई दुःख 
मैं नहीं जान पाया हूँ !

पता है 
यह धागा, यकायक 
कभी भी, कहीं भी खिंच जाता है 
और जब - जब खिंचता है न 
ब्रह्माण्ड के सभी प्रेतों की कसम खाकर कहता हूँ 
ऐसी पीड़ उठती है जैसे किसी ने 
रोम-रोम से रिसती पीज पर 
समुद्र का सारा नमक रगड़ दिया हो 
जैसे दंश बुझे सहस्त्र बाणों ने
पूरा शरीर बेंध दिया हो !
मेरी एक-एक रात
कई कई नींदें निगल जाती है 
मेरा एक-एक दिन 
कई कई पहर लम्बा हो जाता है!

इस जकड़न का 
इस भटकन का 
कहीं कोई माप नहीं !
सोचता हूँ 
क्या उस पार भी 
इतनी ही टीस उठती होगी ?
खैर 
चेतना के धागे तो इसे नहीं काट पाए 
क्या एक बार मृत्यु पर भी विश्वास करना चाहिए ?


Tuesday, 7 June 2022

Parizaad

Reminiscences from my diary

June 07, 2022
Tuesday 10:20 pm
Murugeshpalya, Bangalore


परीज़ाद! परीज़ाद! परीज़ाद!

कब से सोच रहा हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ लिखूँ, कोशिश करूँ एक कविता की, या फिर ग़ज़ल, और कुछ नहीं तो, कमस-कम एक खत ही सही! पर तुम्हारी ख़ुमारी इस कदर सिर चढ़ी हुई है कि हर कोशिश बेज़ार, अधूरी लगती है!

खैर ... 

सबसे पहले तो तुम्हारा होने के लिए शुक्रिया, परीज़ाद!
फिर 
तुम्हारा तुम, सिर्फ़ तुम होने के लिए शुक्रिया!

जानता हूँ कि तुम अब भी नहीं मानोगे, पर तुम्हारा नाम वाकई में बेहद खूबसूरत है परीज़ाद! यूँ भी तुम्हारा नाम रखते हुए तुमने अपनी अम्मी की आँखें नहीं देखीं थीं, मैंने देखीं थीं! पानी और चमक से भरी! तुम्हारी अम्मी को शायद परियों के उस देश का पता मालूम था जहाँ से तुम उतरे हो! हाँ! तुम सच में ही किसी अनोखे देश से आए हो, परीज़ाद!

मेरे एक अज़ीज़ उस्ताद हैं विष्णु सर। वह काफ़ी समय से एक कविता जैसा कुछ बुन रहे हैं जिसका उन्वान है - अधेड़ उम्र के लड़के! वह कहते हैं कि इस नाम से उन्हें मेरी याद आती है, मैं कहता हूँ तुमसे ज़्यादा खूबसूरती और संज़ीदगी से कौन ही इसे इंतिख़ाब कर पायेगा! 

परीज़ाद, तुम्हें जानने के सिलसिलों में मुझे कई मर्तबा लगा है कि तुम्हारी रूह का कोई जुगनू ज़रूर किसी ज़माने कोन्या या इस्तांबुल की गलियों में भटका है। शफ़ाक़ की नज़र से जब मोहब्बत को समझने की कोशिश की थी, तब माना नहीं था कि रूमी या रूमी के शम्स के अलावा कोई कभी मुतलक़ सादगी और बेशर्त इश्क़ कर सकता है, या फिर अज़ीज़ और एला जैसे लोग किताबों के बाहर भी साँस ले सकते हैं। मुझे गलत साबित करने के लिए शुक्रिया, परीज़ाद। कुदरत का किया सही - सही किसने जाना ! क्या पता, तुम, मौलाना, शम्स,  एला, अज़ीज़ सब एक ही रूह हों !

फ़िक्र न करो, परीज़ाद ! मैं तुम्हें खुदा के तख़्त पर नहीं बिठा रहा ! मैं बस इतना कह रहा हूँ कि तुम होना अजूबे से कम नहीं।  हालाँकि मुझे वह वक़्त भी याद है जब तुम भी प्यार में, चंद लम्हात ही सही, पर ख़ुदग़र्ज़ बन बैठे थे और अपने रक़ीब को मारने पर आमादा हो गए थे ! मैं हैरान, परेशान यह सोचकर कि तुम भी ? तुम तो बिना शर्त, बिना जताये सुफ़ियाना इश्क़ वाले बशर थे ! मेरा दिल बेहद घबराया था और भरोसे का प्याला हाथ से छूट गया था लेकिन इसे तुम्हारे नाम का करिश्मा ही कहूँगा कि प्याला हाथ से छूटा ज़रूर, पर टूटा नहीं ! आखिर कमज़ोर लम्हे तो हर एक के हिस्से में कभी न कभी आते ही हैं - फिर चाहे मौलाना हों, एला हो, या हो तुम, परीज़ाद !

ख़ुसरो ने अपनी रुबाइयों में अधूरे इश्क़ की पीर का भी शुक्राना अदा करने को सबसे खूबसूरत जज़्बा कहा है।  तुम पहले इंसान हो जिसे मैंने यह अमल करते देखा है। पलक झपकते ही गहरी से गहरी चोट देने वाले की झोली में माफ़ी और शुक्राना देना कौन दुनिया से सीख कर आये, परीज़ाद? तुम्हारी एक - एक माफ़ी पर सौ - सौ बार बलिहारी हुआ मैं। और उन लोगों की फेहरिस्त जिन्हें तुमने माफ़ किया, सोचता हूँ कि क्या वे सब ताउम्र तुम्हारी या तुम्हारी माफ़ी की कद्र करेंगे? 

ख़ैर  ... क्या ही फ़र्क पड़ता है तुम्हें ! तुमने तो यूँ भी अपने अंदर हर आह, हर तड़प, हर उन्स को बहुत सलीके से दफ़न किया हुआ है! और शायद इसीलिए, तुम्हारा दिल ताज महल से कई गुना ज़्यादा सुन्दर कब्र है!

बेहद सुकून मिला है तुमसे मिलकर, परीज़ाद! बेहद सुकून! तुम्हें देखकर हिम्मत बँधी है, तुमसे सीखने की कोशिश की है कि कितनी सादगी से, शालीनता से प्रेम से उपजी पीड़ा को सिर - माथे रख जिया जाता है  ... कि कैसे उस कसक से फूल खिलाये जाते हैं  ... कि कैसे किसी भी डगर पर दोस्त बनाए जाते हैं  ... कि कैसे दिल पर पत्थर रख उन्हीं दोस्तों से फिर बिछड़ कर आगे बड़ा जाता है  ... कि कैसे उस बिछड़न को अपना हमसफ़र बनाया जाता है  ... कि कैसे दौलत को हाथ की धूल समझा जाता है  ... कि कैसे खुद को औरों के लिए न्योछावर किया जाता है  ... कि कैसे हर किसी से हँस बोलकर भी अपना एकांत सहेजा जाता है  ... कि कैसे और क्यों  सिर्फ़ अपने एकांत, अपनी इज़लात पर ही बार बार लौटा जाता है  ... कि कैसे खुद को हर्फ़ के हवाले किया जाता है  ... कि कैसे उन्हीं हर्फों से जीने के लिए साँस सींची जाती है  ... कि कैसे दुनिया और दुनियावालों की रुस्वाइयों से थककर कुदरत की ओर रुख किया जाता है ! 

अरे हाँ! कुदरत से याद आया - मैं तो बौरा ही गया यह देखकर कि आम ज़िन्दगी की मशक्क़तों और अपनों की मसरूफ़ियतों से थक - हार आखिरकार तुमने भी पहाड़ों को और पहाड़ों ने तुम्हें अपनाया, और वह भी शिद्दत से! तुम्हें एक राज़ की बात बताता हूँ - मैं भी उसी रास्ते पर हूँ ! और वक़्त का क्या पता, परीज़ाद ! काश कभी यूँ हो कि हिमालय या हिन्दुकुश के किसी बर्फ़ीले कोह की पगडण्डी पर टहलते - टहलते,  कायनात की बेतरतीबियों पर मुस्कुराते - मुस्कुराते, कोई कविता या गीत गुनगुनाते - गुनगुनाते तुमसे अचानक मुलाक़ात हो ही जाए!



Saturday, 4 June 2022

Mahashivratri

Reminiscences from my diary

June 04, 2022
Saturday, 0700 pm
Murugeshpalya, Bangalore

वसंत 
भोर  
रिमझिम 
कलरव 

निर्जनता 
आत्मीयता 
ठिठौली 
पग - पग 

दीपक
बेलपत्र 
रुद्राक्ष 
क्षीर 

आरती 
अर्पण 
कृतज्ञता 
मृत्युंजय 

तुम 


Sunday, 29 May 2022

Algae


Reminiscences from my diary

May 29, 2022
Sunday, 20:00 hrs
Murugeshpalya, Bangalore


सोचो ज़रा 

कहीं किसी बियाबान 
कल्पों पुराना मंदिर 
उसके खंडहरों के अंदर 
मकड़जाल सना गर्भगृह
वहाँ 
शिव की खंडित प्रतिमा ताकता 
जंगली फूलों की गमक लिए 
हरेपन से सहमा 
बेबस 
कैद 
मायूस 
एक तालाब!

तालाब के ऊपर 
अंदर 
हर कोने - किनारे पर 
मुंडेर - मुंडेर
सतह - सतह  
सूखी - गीली 
गीली - सूखी 
काई 
जमी काई 
तैरती काई 
काई के ऊपर काई 
परतों परत काई 
सिर्फ़ काई!

अब सुनो ज़रा 

समय स्मृतियों को नहीं निगलता!
स्मृतियाँ समय को निगल जाती हैं!


Sunday, 1 May 2022

Nobody stays here

Reminiscences from my diary

May 01, 2022
Murugeshpalya, Bangalore
0800 PM


तुमने कहा कि तुम यहीं हो
पर मुझे लगता है कि 
तुम्हें
महज़ ऐसा लगता है कि 
तुम यहीं हो 
पर 
दरअसल 
तुम यहाँ नहीं हो 

यहाँ कोई नहीं है 
कोई 
भी 
नहीं 
मैं भी हूँ या नहीं 
पता नहीं 

बस 
कुछ बेतरतीबियाँ हैं 
कुछ बेचैनियाँ हैं 
कुछ आवारगियाँ हैं 
कुछ खुशबुएँ हैं 

जो 
धरती - धरती 
गगन - गगन 
काया - काया 
भटक रहीं हैं 
न जल पाती हैं
न गल पाती हैं 
न बह पाती हैं
न सह पाती हैं 

बस हैं 
रहेंगी 

न जाने किस रास्ते 
यहाँ 
आ पहुंची हैं 
और अब 
बस 
यहीं
हैं 

सुनो 

कभी अगर 
तुम्हें 
तुम्हारी बेचैनियाँ 
बहुत परेशान करें 
और 
तुम्हें 
निजात पानी हो उनसे 
तो उन्हें 
यहाँ का पता 
दे देना 

इस चौखट पर 
तुम्हारी भटकन को भी 
हमेशा के लिए 
पनाह मिल जाएगी 


Monday, 18 April 2022

No, I won't give this any title! 


Reminiscences from my diary

April 18/19, 2022
Arthur's seat, Edinburgh/
Train from. Edinburgh to London

0200 pm/ 0100 am


मैं जब भी कभी कहीं जाता हूँ तो अक्सर ही सोचा करता हूँ, चाहा करता हूँ कि जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ से कभी लौट न पाऊँ, वहीं कहीं बेशक्ल बेनाम गुमनाम हो जाऊँ। जानता हूँ कि यह बात तर्कहीन लग सकती है, और शायद है भी लेकिन ऐसा सोचना, ऐसा चाहना मेरे बस में नहीं! शहर हो, गाँव हो, देश हो, विदेश हो, पहाड़ हो, समुद्र हो - बात जगहों की सूची की नहीं, उस हलचल, या फिर उस तटस्थता की है जो मेरे साथ रहती है ! कितनी तसल्ली से कोई भी जगह मुझे, और मैं किसी भी जगह को अपना लेता हूँ! यूँ भी एकांतवास का मानचित्र पर कोई बिंदु नहीं होता! 

एक छोटा सा पर पूरा खिला हुआ चटक पीला फूल बयार के हर हिलोरे के साथ मेरे पाँव को छू रहा है। उस पर बैठी मधुमक्खी बेहद इत्मीनान से यहाँ की धूप सेंक रही है। चारों ओर हरी लंबी घास - बिल्कुल हरी - और पता नहीं, कहाँ कब कैसे खिला यह पीला फूल... 

इस सफ़र से पहले एक बार भी वैसा नहीं सोचा जैसा अमूनन सोचा करता हूँ। इस ख़्याल ने एक बार भी हवाला नहीं किया कि मैं यहाँ से न जाऊँ! बल्कि एक एक साँस ऐसे ली है जैसे किसी साहूकार का मोटा कर्ज़ मोटे ब्याज़ के साथ चुकाना है। एक खिन्नता है ... एक डर है ... एक टीस है ... एक चीख है जो निकल नहीं पाती ... एक आँसू है जो लुढ़क नहीं पाता ... एक चेहरा है जो दिख नहीं पाता ... एक पता है जो मिल नहीं पाता ... एक याद है जो मरती नहीं ... एक साँस है जो जीती नहीं ... 

तीन तरह के पेड़ों के झुँड हैं आँखों के ठीक सामने! पहले झुँड ठूँठों का है - नीचे से ऊपर तक दिशाओं को ओढ़े हुए - एक भी पत्ता नहीं, पर फिर भी शायद उम्मीद का हरापन समेटे ! इनके बराबर में कम लंबाई के चार पाँच पेड़ों का एक झुरमुट है - बेहद हरा रंग - आँखों को सुकून देता सावन सा हरा। फूल शायद नहीं हैं पर खूब भरे भरे! फिर ज़रा से कोण पर तीसरा समूह उनका जिन पर सफ़ेद फूलों के गुच्छे लदे हुए हैं - एक एक पेड़ पर सैकड़ों सैकड़ों गुच्छे - लेकिन मज़े की बात यह है कि हरी पत्ती शायद ही कोई  ... प्रकृति सा विरला कोई नहीं, ईश्वर भी नहीं! 

यहाँ से दूर भले ही कभी कभार भूल जाऊँ या भुला दूँ पर यहाँ होते हुए कैसे न याद करूँ कि कैसे इस जगह, इस मिट्टी ने लम्हा लम्हा बरस बरस बुनी मेरी रूहदारी को रातोंरात निगल लिया था, और मेरे हिस्से के ब्रह्मांड को तार तार कर दिया था! मैं कब से रेशा रेशा जोड़कर अपना मकड़जाल बुनने की कोशिश कर रहा हूँ ! हर बार कोई न कोई सफाई के बहाने आता है और एक ही झटके में ... पहले मैं धम्म से ज़मीन पर गिरता हूँ, और फिर कोई कोना, कोई सहारा, या फिर खुद ही एक बार फिर अपने में रम जाता हूँ! जब कभी थककर सुस्ताने बैठता हूँ तो कोई भी कभी भी कुचल कर चला जाता है! पर कभी भी पूरी तरह मेरा दम निकल नहीं पाता! 

मैं जिस पहाड़ी की ओर पीठ कर के बैठा हूँ, उसपर अनगिनत फूल खिले हैं पीले रंग के! पीला शायद यहाँ की मिट्टी का सबसे पसंदीदा रंग है! हर दरीचे से कम से कम एक पीला फूल झाँक रहा है! कुछ लोग सबसे ऊपर जाने के लिए रास्ता खोज रहे हैं, बना रहे हैं। लोग दोस्तों के साथ हैं, परिवारों के साथ हैं! इतने फूल देख कर मैं हैरान हूँ - कच्चे पक्के रास्तों के दोनों ओर, पत्थरों की ओट में, यहाँ वहाँ पड़ी दरारों में, पहाड़ी के ऊपर भी! पर पर पर - जितने फूल खिले हुए हैं, उनसे दो या तीन गुना काँटे भी हैं ! 

मेरी कमर तुम्हारा भार ढोते ढोते टूटती जा रही है! काश यहाँ भी कोई गंगा होती! सभी स्मृतियों की पोटली बना पहले मैं यहाँ की गंगा किनारे किसी मसान में भस्मीभूत करता और फिर बची अस्थियों को भी साथ साथ बहा देता। यूँ करो कि या तो मुझे अपने पास, अपने साथ दो गज़ ज़मीन दो या फिर मेरी रूह को अपनी शम्सियत से हमेशा के लिए आज़ादी  ... 

मुझे वापिस जाना है 
मुझे वापिस यहाँ नहीं आना है!