Tuesday, 18 February 2025

I am what I read!

Reminiscences from my diary

Feb 18, 2025
Tuesday, 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कभी-कभी सोचता हूँ कि अपने प्रिय लेखकों को, कवियों को, कहानीकारों को पढ़ते-पढ़ते एक समय के बाद क्या हम उनके जैसे ही नहीं हो जाते? कभी पूरे-के-पूरे, कभी पूरे से थोड़ा कम, कभी कुछ-कुछ  ..   

क्या आपने भी महसूस किये हैं वे किरदार, वे लोग, जो कहानियों में, उपन्यासों में गढ़े होते हैं और धीरे-धीरे पन्ना-दर-पन्ना  किताबों से निकल बाहर आ जाते हैं - दबे पाँव ! चुपचाप ! वे जगहें, परिवेश, मौसम, आपके आस-पास बिखर जाते हैं ! आप विक्रम  .. वे बेताल  .. 

एक दुनिया में कई-कई दुनियाँ ! यहाँ भी आप ! वहां भी आप ! 
है न ! जादू ! तिलिस्म !

.. मैंने देखा है अल्मोड़ा की पहाड़ियों में  .. एक बड़े बरगद के नीचे गुनगुनी धूप सेकती शिवानी की कृष्णकली को  .. कभी-कभी किसी अदृश्य प्रभाकर से निरंतर बतियाती रहती  .. कभी एक दम से मौन साध लेती  ..  कली को देखते-देखते मैं ढूंढने लग जाता उसके प्रभाकर को  .. ज़्यादा दूर नहीं गया होता तो पकड़ कर उसके पास ले आता  .. 

.. मैं होना चाहता था अरुन्धती का राहेल, या एस्थर  .. बचाना चाहता था अपनी माँ का लावारिस होना, सम्मान के साथ करना चाहता था उसका दाह -संस्कार  ..  मैं बदलना चाहता था अंजुम का बचपन, सहेजना चाहता था उसकी किन्नरता, बनाना चाहता था उसके लिए कब्रिस्तान में एक छोटा-सा घर  .. 

.. सोचा करता हूँ निराला को, निराला की सरोज को, भिक्षुक को  ..  उनके अंत और अनंत के बीच एक बिंदु बनने की अभिलाषा जब तब मचल जाती है  .. और मचलते हैं आँखों में बाबा नागार्जुन, हिमालय पर घिरते बादल और उनकी कविताओं में छिपे इंद्र, कालिदास और कुबेर  .. क्या पता उनका प्रिय शापित चकवा मैं ही हूँ  .. 

.. यूँ भी मैंने देखा है ढेर सारा हिमालय - पाँव-पाँव, गाँव-गाँव  .. चखी है गंगा गोमुख से जोनो लिनेन के साथ  .. जब-जब जोनो ने अपने मरे छोटे भाई को याद किया , तब-तब हमने आँसू साझे  .. मैंने पहाड़ों से और प्यार करना सीखा  .. किसी ज़माने में डेर्वला  के साथ भी इन्हीं पर्वतों से, ख़ौफ़ज़दा पगडंडियों से, सुन्दर घाटियों से गुज़रा था मैं, वह भी साइकिल पर  .. जानते हो कहाँ से?  सीधा आयरलैंड से  .. सच  .. 

.. शिव्या को पढ़ते-पढ़ते लगा कि स्पिति के की-गोम्पा में मैं भी रहा हूँ, बीस के बीस दिन  - या तो बराबर के किसी कमरे में, या फिर ऊपर या नीचे  .. नंगे पहाड़ों के ऊपर पूरा चाँद देखा है मैंने  .. मैंने भी छानी है ख़ाख़ अमेज़न के जंगलों में शिव्या के साथ .. चखा है शमनों का रस  ..  झूमा हूँ ख़ूब मैं भी  .. 

.. कोन्या जाना चाहता हूँ  .. मुद्दत से  .. रूमी की कब्र देखने से पहले शम्स के निशान ढूँढना चाहता हूँ  .. सेमा करते-करते होना चाहता हूँ अनंत  .. या शून्य  .. शफ़ाक़ की एला और शफ़ाक़ के अज़ीज़ के खतों को छूना चाहता हूँ,  पढ़ना चाहता हूँ  .. चुराना चाहता हूँ  .. एक बार इसी तरह चुपचाप चुराए थे ख़त अमृता के, और इमरोज़ के भी  ... जब घूमा था अमृता के साथ यूरोप  .. और इमरोज़ के साथ बम्बई  .. रसीदी टिकट में रखा चीनी बुकमार्क हूँ मैं  .. 

कितनी ही शामें मुराकामी के साथ बितायीं  .. कितनी ही रातें डूबा रहा नार्वेजियन वुड में  .. रीको, तोरु, नायको की उदासियाँ आज भी मेरी बालकनी के फ़र्श पर बिछी हुई हैं  .. बिछा है बहुत सारा जापान मेरे इर्द-गिर्द  ..  समझा कि बिना वजह उदास होना पाप नहीं, आपके बस में भी नहीं  .. 

अनघ की सभी कहानियाँ धूप की मुँडेर सी हैं - कभी सच, कभी छलावा  .. देखा कभी दरख्तों से टपकता ख़ून  .. पी कभी एक बालिश चांदनी  .. संजोया कभी शाहबलूत का पत्ता  .. और रखा कभी धुएँ का नाम शाम  .. 

.. बाबुषा की बावन चिट्ठियों में बसे मृत्युंजय - लगता है - आस-पास ही है  .. इतने पास कि पुकारूँ तो फट्ट से आ जाये  .. पर नहीं आते मृत्युंजय  .. न ही आती है तस्लीमा की शैफाली  .. वह आवाज़ पर आवाज़ देती रहती हैं, मैं आवाज़ पर आवाज़ देता रहता हूँ  .. कहाँ हो शैफाली? कौन हो शैफाली?

.. हालाँकि मैंने अभी तक सुकून से नहीं पढ़ा मैरी ऑलिवर को, पर सुना है बहुत कुछ लिन से .. और उस बिना पर चाहता हूँ कि जब भी पढ़ूँ, उनके जैसा हो जाऊँ, या फिर बन जाऊँ मोहन राकेश की डायरी का मोहन राकेश  ..  वैसे ही जैसे बना था अखिल लाल किताब पढ़ते हुए  .. या हुआ था नेरुदा पढ़ते हुए गीत की आलाप में गिरह  .. 

.. मैं प्रसाद का कंकाल हूँ  .. और मुंशीजी का होरी  ..  टैगोर का गौरा हूँ  मैं  .. और इशिगुरो का टेस्ट-ट्यूब बेबी भी  .. नवल की कहानियों में ग़ुम पागल तिब्बती हूँ मैं  .. मैं हूँ गुरनाह के उपन्यासों में महकी कसक  .. मैंने नापी है वितस्ता चंद्रकांता के साथ  .. और खोया है खुद को अनुराधा के रानीखेत में  .. अलमेडा के साथ देखी है लंका सात दिन और सात चाँद-रातें  .. और देखा है बुरहान का इस्तानबुल  .. 

मैं मैं नहीं हूँ  .. बिलकुल भी नहीं  .. और जो भी हूँ न, एक जगह नहीं हूँ  .. यह कितनी सुन्दर बात है !

एक दिन यूँ भी होगा कि  .. 

.. निर्मल को पढ़ते-पढ़ते, उन्हें सोचते-सोचते, उनसे मन-ही-मन बातें करते-करते  ..  दिख ही जायेगी मुझे चीड़ों में चाँदनी  .. सुनाई देगी धुंध से उठती धुन  .. और पा जाऊँगा मैं एक चिथड़ा सुख  ..! 


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