Sunday, 28 September 2025

The Fragrance of the October


Reminiscences from my diary

Sep 28, 2025
Sunday, 1900 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कार्तिक पूर्णिमा 
दुर्गा अष्टमी 
अहोई पूजन 

विजयादशमी 
काली पूजा 
धनतेरस 

दीपावली 
गोवर्धन 
भाईदूज 

मैंने आँखें बंद की 
और मेरे सामने 
छितरा गईं  

त्योहारों की टोकरी 
पोटली में बंधी शामें 
मुट्ठी भर यादें 

अब तुम भी 
आँखें बंद करो 
और सोचो 

पूस की रात 
ठिठुरती पसलियाँ 
रात भर जलता अलाव 

जब किसी पहर रह जाए 
कतरा भर आँच, और ओस में 
भीग जाएँ दम तोड़ते कोयले, तब 

एक सीला धुआँ उठता है 
कुछ सन्नाटा, कुछ टीस,
कुछ गमक लिए 

सुनो, जिन शामों की, 
और यादों की 
मैं बात कर रहा हूँ 

मुझे उनसे वैसी ही
बिलकुल उस धुएँ जैसी ही 
गंध आती है 




Friday, 19 September 2025

Our sacred game

Reminiscences from my diary

Sep 20, 2025
Saturday 0115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक खेल खेलें ?
जो अक्सर खेला करते हैं 

कि मैं कुछ सवाल पूछूँ तुमसे 
अगर सब जवाब सही 

तो सारी धरती तुम्हारी 
और 'गर एक भी सवाल से चूके 

तो चाँद मेरा 
बोलो, मंज़ूर है ?

इस बार जीतना मुश्किल हो सकता है  
ख़ैर देखते हैं  ...तो बताओ -

एक रंग की तितलियाँ 
किन जंगलों में पाई जाती हैं ?

मुसलसल ढलता सूरज 
उदास क्यों दिखता है ?

खुद से किया वायदा खुद ही तोड़ डालो 
तो कितना पाप लगता है ?

इंद्रधनुष को कितनी देर 
मुट्ठी में बंद किया जा सकता है ?

पूस का कुहासा और बहमाया कबूतर 
एक से क्यों लगते हैं ?

क्या जुगनू जला सकते हैं 
पुरानी तसवीरें, और पुराने खत ?

क्या अख़बारों में छपे इश्तिहार 
ढूँढ सकते हैं भूले-बिसरे चेहरे ?

कैसे खोजा जा सकता है उस लम्हे को 
जिसके गुज़रते ही हुम गुज़र जाते हैं ?

अधूरी कविताओं और अनकही पीड़ को 
कौन देता है मुक्ति ?

क्यों मियाँ? कहा था न
इस बार जीतना मुश्किल हो शायद 

अच्छा चलो 
अब आखिरी आसान सवाल 

मैं तुम्हें फिर कभी 
दिखाई क्यों नहीं दिया ?


Saturday, 5 July 2025

The weekend poignance

Reminiscences from my diary
July 05, 2025
Saturday 2330 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक उदासी है, बदहवासी जैसी, 
जो हर चौथे-पाँचवे दिन धमक पड़ती है, मानो
चौखट के पास, या किसी खिड़की की ओट में, या छत को जाती सीढ़ियों पर लगे मकड़ी के किसी जाले में छिपी बैठी गिन रही हो 
पहर-पहर, दिन-दिन अपने पैने नाखूनों पर कि 
कब कुछ दिन बीतें और कब फिर से -
घुस जाए मेरे घर, मेरे कमरे, मेरी रसोई में 
सुस्ताने दो-ढाई दिनों के लिए 
मैं बहुत जतन करता हूँ  
धूप जलाता हूँ, एग्जॉस्ट चलाता हूँ, रखता हूँ रोशनदान, खिड़कियाँ, दरवाज़े खुले 
फ़र्श रगड़ता हूँ, पर्दे झाड़ता हूँ, ख़ुशामद भी करता हूँ 
पर कम्बख़्त यूँ डेरा डालती है जैसे यह घर मेरा नहीं इसका हो हमेशा से 
मैं इसे घर में छोड़ निकल पड़ता हूँ चुपचाप, कहीं भी 
शाम-शाम, रात-रात 
अर्ज़ियाँ लगाता हूँ साईं से, नानक से
कि मदद करें, पीछा छुड़ाएँ मेरा 
वे मुस्कुरा देते हैं जैसे तथागत, और छोड़ देते हैं मुझे मेरे हाल पर 
चाँद को पुकारता हूँ फिर, कभी आता है, कभी नहीं, कभी आकर भी नहीं,
मसरूफ़ रहने लगा है इन दिनों, हो भी क्यों न 
उस पर नज़्में लिखने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं 
घंटों भटकने के बाद आता हूँ वापस 
धीरे से, बिना आहट जैसे चोर 
जूते उतारता हूँ, सहलाता हूँ अपने पाँव
बिस्तर संवारता हूँ, दो घूँट पानी पीता हूँ और लेट जाता हूँ थका-हारा
ढेर सारी नींद, नींद में ढेर सारे सपने बँधाते हैं मेरा ढाढस 
मैं सोता रहता हूँ घुटनों को छाती से लगाए 
ग़फ़लत का आलम चलता रहता है यूँ ही 
बीत जाते हैं ये दो-ढाई दिन हमेशा की ही तरह 
कतरा-कतरा 

अगली भोर जब आँख खुलती है तो
कमरा लगता है एक सराय 
मेरी पीठ पर मचल रही होती है एक चस -चस 
और मुट्ठियों में होते हैं ढेर सारे हरसिंगार 





Wednesday, 2 July 2025

The forest whispers

Reminiscences from my diary

July 02, 2025
Wednesday 1945 IST
Murugeshpalya, Bangalore

सुनो !

किसी जंगल की साँस महसूस की है कभी ?
या उसकी आँच
अपनी धमनियों में ?
साँस की आँच में -
आस भी होती है क्या ?

अच्छा यह बताओ -

किसी आस में डूबे हो कभी ?
बेसुध बेसबब बैरागी 
'गर हाँ तो फिर भी डर लगता है कभी ?
यूँ ही किसी शह से ?
पीड़ से ?
या ख़ुद से ?
या ख़ुदा से ?

यूँ करो - 

सारे डर समेटो 
उन्हें हथेली पर रखो कभी और 
फूँक मार उड़ा दो पंखुड़ी-पंखुड़ी 
या बो दो -
किसी बरगद के नीचे 
छोड़ आओ अपनी पीड़ -
किसी पंछी के नीड़ 

जान पाओ तो जान लो -

वहाँ पोखरों में सुस्ताता है मेंह 
हरे रंग में होते हैं कई कई रंग 
साँझ पखारती है चुप्पियों की देह 
जुगनू बीनते हैं लौट आने की दस्तक 
और 
पतझड़ के बाद भी होता है एक और पतझड़ !

कुछ राज़ सिर्फ़ जंगल जानता है !



Sunday, 22 June 2025

Hope

Reminiscences from my diary

Sunday June 22, 2025
2200 IST
Murugeshpalya, Bangalore


ऑटो-रिक्शा में बैठा एक आदमी 
आँखें बंद किये बड़े इत्मीनान से 
चिन-मुद्रा में 

फुटपाथ पर दो लड़के रेस लगाते हुए 
अंधाधुन्द पड़ते पाँव 
झड़े हुए फूलों को कुचले बिना 

सड़क किनारे खाली बेंच
थोड़ी धूप थोड़ी बारिश और एक लड़की 
न फ़ोन न छाता, हाथ में बस एक किताब 

एक-दूसरे के गले में हाथ डाले
तीन बच्चे, स्कूल यूनिफार्म, नंगे पाँव, भारी बस्ते 
झूमते, फुदकते, दौड़ते, ठहरते
 
कुछ है जो बिखरा ही सही
पर बचा हुआ है 
मुस्कुराता, महकता जैसे 

हर साँझ रख देता हो कोई 
शमी के पास
एक सुलगता लोबान  

Tuesday, 17 June 2025

The weird metaphors of voids

Reminiscences from my diary

June 17, 2025
Tuesday 1815 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक रिक्तता 
तुम्हारे होने पर

जैसे 
विशाल मरू कोई 
रेत ही रेत जहाँ तक घूमे नज़र 
और उसमें डूबते 
तारे, नक्षत्र और जुगनू 

एक रिक्तता
तुम्हारे न होने से भी 

मानो 
गुनगुनी धूप में 
पीर-पंजाल की पिघलती बर्फ़
और उसे चूमते 
सघन देवदार   

किसी एक रोज़ 
यूँ होगा कि 
समय लेगा उबासी 
ठिठकेगा 
बौरायेगा, और 
कर देगा सब उलट-पुलट 

समय को पता है 

कुछ रिक्तताओं की होती है 
अपनी ही नियति 
अपने ही रूपक 
अपना ही व्याकरण 



Monday, 16 June 2025

And you still survive?

Reminiscences from my diary

June 16, 2025
Monday 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


फ़क़त इतनी-सी बात है 
कि कभी-कभी 

आपसे आपका आप 
सम्भाले नहीं सम्भलता 

एक घुटन जो जाती नहीं 
एक साँस जो आती नहीं 

जैसे कोई भोंके खंजर
सलीके से, धीरे-धीरे, बार-बार

जिस्म ख़ून-ख़ून
आँख बंजर-बंजर 

अंदर छाती में या आस-पास कहीं 
एक या फिर कई दर्द अजीब

यूँ कि जैसे समंदर का सारा ख़ारा 
मसल दिया हो ज़ख्म-ज़ख्म 

फिर भी न चीख़ न अश्क़
कि हो हयात ग़ुम-ज़दा 

हाँ! फ़क़त इतनी-सी ही बात है 
कि कभी-कभी 

एक कहानी, या आलम ठहर जाता है, और 
चलता चलता है पहर-दर-पहर