Sunday, 21 December 2025

Forgiveness

Reminiscences from my diary

Dec 21, 2025
Sunday 2100 IST
Murugeshpalya, Bangalore


ढेर सारी 

घृणा
और आक्रोश 
और द्वन्द 
और द्वेष 

और अचम्भा भी 
और सीमाएँ
और असत्य 
और अप्रेम 

ढेरों ढेर 
बहुत सारी 

इच्छाएँ 
और निराशाएँ 
और घाव 
और नील

और 

घुटन घुटनों तक 
कसक नाखूनों भर 
रोम - रम रूदन 
फिर निस्पंदन 

रह गयी अंत में 

अंजुलि भर 

क्षमा 


 

Thursday, 27 November 2025

Existence

Reminiscences from my diary

Nov 27, 2025
Thursday 2030 IST 
Murugeshpalya, Bangalore


मासूम था मैं
तुम्हारे न होने में 
तुम्हारे होने को ढूँढता रहा 

बात महज़ इतनी-सी थी कि  
तुम्हारा होना 
नहीं था तुम्हारा होना

समझता रहा
मेरा होना है 
तुम्हारा होना 

और यह भी कि 
तुम्हारा न होना है 
मेरा न होना 

अब जब बरस बीते तो बूझ पाया
नियति है तुम्हारा न होना
मेरा होना 

और इस तरह हुआ 
मेरा होना
मेरा ही न होना 

Sunday, 23 November 2025

I tried everything..

Reminiscences from my diary

NOv 23, 2025
Sunday 2230 IST
Murugeshpalya, Bangalore

तस्वीरें चूमीं
लगाई रखीं छाती से 
कई देवताओं के आगे
लगाया ध्यान 
पहाड़ों से माँगा सब्र
खोजा सुकून समन्दरों में 
मीलों चला जंगलों में, शहरों में,
सुनसान अंधेरों में 
सूरज निचोड़ा, चाँद फूँका, 
पूर्वजों से माँगी मन्नतें 
बादल चखे, बारिशें पी, 
रेशा - रेशा किया धुआँ 
पोस्टकार्ड भेजे, चिट्ठियाँ लिखीं, 
नाखूनों में छिपाया नाम 
किताबों में ढूँढी साँस, 
मौन में बाँधा शोर 
पहले खुला, फिर उधड़ा, 
फिर हुआ ज़ार-जार, लहूलुहान

ख़लील होना तो बहुत बड़ी बात थी, 
तुम्हें तो एक कतरा तरस भी न आया 



Thursday, 20 November 2025

I turned into a story

Reminiscences from my diary

Nov 20, 2025
Thursday 2245 IST
Murugeshpalya, Bangalore


... कि और कुछ नहीं तो 
कमसकम एक कहानी
एक किस्सा तो बनेगा 
सुनने - सुनाने को 

जिसकी शुरुआत कुछ यूँ होगी कि 

एक बार की बात है 
नाम तो ठीक - ठीक नहीं याद
न ही चेहरा पूरा
बस इतना कि 
फलाँ इंसान को 
फलाँ मौसम फलाँ तारीख़ 
बैठे-बैठे, गाहे - बगाहे 
हुई थी टूटकर मोहब्बत ... 



Sunday, 28 September 2025

The Fragrance of the October


Reminiscences from my diary

Sep 28, 2025
Sunday, 1900 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कार्तिक पूर्णिमा 
दुर्गा अष्टमी 
अहोई पूजन 

विजयादशमी 
काली पूजा 
धनतेरस 

दीपावली 
गोवर्धन 
भाईदूज 

मैंने आँखें बंद की 
और मेरे सामने 
छितरा गईं  

त्योहारों की टोकरी 
पोटली में बंधी शामें 
मुट्ठी भर यादें 

अब तुम भी 
आँखें बंद करो 
और सोचो 

पूस की रात 
ठिठुरती पसलियाँ 
रात भर जलता अलाव 

जब किसी पहर रह जाए 
कतरा भर आँच, और ओस में 
भीग जाएँ दम तोड़ते कोयले, तब 

एक सीला धुआँ उठता है 
कुछ सन्नाटा, कुछ टीस,
कुछ गमक लिए 

सुनो, जिन शामों की, 
और यादों की 
मैं बात कर रहा हूँ 

मुझे उनसे वैसी ही
बिलकुल उस धुएँ जैसी ही 
गंध आती है 




Friday, 19 September 2025

Our sacred game

Reminiscences from my diary

Sep 20, 2025
Saturday 0115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक खेल खेलें ?
जो अक्सर खेला करते हैं 

कि मैं कुछ सवाल पूछूँ तुमसे 
अगर सब जवाब सही 

तो सारी धरती तुम्हारी 
और 'गर एक भी सवाल से चूके 

तो चाँद मेरा 
बोलो, मंज़ूर है ?

इस बार जीतना मुश्किल हो सकता है  
ख़ैर देखते हैं  ...तो बताओ -

एक रंग की तितलियाँ 
किन जंगलों में पाई जाती हैं ?

मुसलसल ढलता सूरज 
उदास क्यों दिखता है ?

खुद से किया वायदा खुद ही तोड़ डालो 
तो कितना पाप लगता है ?

इंद्रधनुष को कितनी देर 
मुट्ठी में बंद किया जा सकता है ?

पूस का कुहासा और बहमाया कबूतर 
एक से क्यों लगते हैं ?

क्या जुगनू जला सकते हैं 
पुरानी तसवीरें, और पुराने खत ?

क्या अख़बारों में छपे इश्तिहार 
ढूँढ सकते हैं भूले-बिसरे चेहरे ?

कैसे खोजा जा सकता है उस लम्हे को 
जिसके गुज़रते ही हुम गुज़र जाते हैं ?

अधूरी कविताओं और अनकही पीड़ को 
कौन देता है मुक्ति ?

क्यों मियाँ? कहा था न
इस बार जीतना मुश्किल हो शायद 

अच्छा चलो 
अब आखिरी आसान सवाल 

मैं तुम्हें फिर कभी 
दिखाई क्यों नहीं दिया ?


Saturday, 5 July 2025

The weekend poignance

Reminiscences from my diary
July 05, 2025
Saturday 2330 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक उदासी है, बदहवासी जैसी, 
जो हर चौथे-पाँचवे दिन धमक पड़ती है, मानो
चौखट के पास, या किसी खिड़की की ओट में, या छत को जाती सीढ़ियों पर लगे मकड़ी के किसी जाले में छिपी बैठी गिन रही हो 
पहर-पहर, दिन-दिन अपने पैने नाखूनों पर कि 
कब कुछ दिन बीतें और कब फिर से -
घुस जाए मेरे घर, मेरे कमरे, मेरी रसोई में 
सुस्ताने दो-ढाई दिनों के लिए 
मैं बहुत जतन करता हूँ  
धूप जलाता हूँ, एग्जॉस्ट चलाता हूँ, रखता हूँ रोशनदान, खिड़कियाँ, दरवाज़े खुले 
फ़र्श रगड़ता हूँ, पर्दे झाड़ता हूँ, ख़ुशामद भी करता हूँ 
पर कम्बख़्त यूँ डेरा डालती है जैसे यह घर मेरा नहीं इसका हो हमेशा से 
मैं इसे घर में छोड़ निकल पड़ता हूँ चुपचाप, कहीं भी 
शाम-शाम, रात-रात 
अर्ज़ियाँ लगाता हूँ साईं से, नानक से
कि मदद करें, पीछा छुड़ाएँ मेरा 
वे मुस्कुरा देते हैं जैसे तथागत, और छोड़ देते हैं मुझे मेरे हाल पर 
चाँद को पुकारता हूँ फिर, कभी आता है, कभी नहीं, कभी आकर भी नहीं,
मसरूफ़ रहने लगा है इन दिनों, हो भी क्यों न 
उस पर नज़्में लिखने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं 
घंटों भटकने के बाद आता हूँ वापस 
धीरे से, बिना आहट जैसे चोर 
जूते उतारता हूँ, सहलाता हूँ अपने पाँव
बिस्तर संवारता हूँ, दो घूँट पानी पीता हूँ और लेट जाता हूँ थका-हारा
ढेर सारी नींद, नींद में ढेर सारे सपने बँधाते हैं मेरा ढाढस 
मैं सोता रहता हूँ घुटनों को छाती से लगाए 
ग़फ़लत का आलम चलता रहता है यूँ ही 
बीत जाते हैं ये दो-ढाई दिन हमेशा की ही तरह 
कतरा-कतरा 

अगली भोर जब आँख खुलती है तो
कमरा लगता है एक सराय 
मेरी पीठ पर मचल रही होती है एक चस -चस 
और मुट्ठियों में होते हैं ढेर सारे हरसिंगार