Saturday, 31 May 2025

25 presents for you in 2025

Reminiscences from my diary
May 31, 2025
Saturday 2345 IST
Murugeshpalya, Bangalore


दस तरह के नाखूनों की उपमा लिए -
दस तरह के पोस्ट-कार्ड्स 
एक खूबसूरत, ताले वाली डायरी 
बैंगनी रंग का फाउंटेन पेन 
मुराकामी की कोई किताब 
किताब का बुकमार्क -
एक सूखा हरसिंगार 

काँच के मर्तबान में -
बुरांश की सुर्ख़ पंखुड़ियाँ 
बेल-पत्तों की नक्काशी वाली -
कांसे की एक बोतल 
तुम्हारे नाम का एक कॉफ़ी का मग
कश्मीर का केसर 
केसर में छिपाया -
एक सूखा हरसिंगार 

याक की ऊन से बनी -
एक गर्म टोपी  
फीते वाली हथघड़ी 
हरे रंग का लम्बा कुर्ता 
हरे ही रंग की बुशर्ट 
बुशर्ट की जेब में 
एक सूखा हरसिंगार 

आते सावन की हवा में खनकता -
चीनी-मिट्टी का विंड-चाइम 
टेलर स्विफ्ट का -
सबसे पुराना रिकॉर्ड 
एक खाली फोटो-एल्बम 
रोज़मर्रा के लिए एक बस्ता 
बस्ते के अंदर कहीं -
एक सूखा हरसिंगार 

एक गुल्लक फूटने वाली 
एक रैकेट बैडमिंटन का 
एक बुद्ध मुस्कुराते हुए 
एक ग्रीटिंग-कार्ड शुभकामनाओं भरा 
ग्रीटिंग-कार्ड के लिफ़ाफ़े में 
एक सूखा हरसिंगार 



Saturday, 17 May 2025

For my Rumi, part 1

Reminiscences from my diary

May 17, 2025
Saturday 2115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


यूँ हो कि
कोई न हो कहीं भी 
बस   
हम हों और 
सतपुड़ा के जंगल हों
 
नीले पेड़, पीले पत्ते,
रंग - बिरंगे कबूतर 
एक रंग की तितलियाँ 
सफ़ेद भँवरे 
फूल ही फूल 

आम की कोटर से 
महुआ की फुनगियों तक 
फुदकती हों गिलहरियाँ 
हम कुतरें जामुन 
पलाश सुस्ताये, हमें ऊँघाये 

हम बूझ न पाएँ भेद 
जुगनुओं और सितारों में 
धूप भी, बौछार भी 
टिमटिम टिमटिम 
टिपटिप टिपटिप 

झरनों से फूटे इंद्रधनुष 
मैं समेट लूँ जेबों में 
सूरज शरमाये, हवा इठलाये 
चाँद बजाये सीटी, हम खेलें 
छिपने - ढूँढने का खेल 

मेरे बस्ते में हों खूब सारी टॉफियाँ 
और खूब सारी कविताएँ 
और ये भी कि सब ख़्याल हों 
कागज़ी जो उड़ जाएँ 
रूमी की हल्की - सी फूँक से 




Monday, 12 May 2025

Rants on Buddha Purnima

Reminiscences from my diary

May 12, 2025
Monday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


तुम हो - ऐसा तुम्हें लगता है ! तुम अंतर्धान हो जाओ तो ? तो क्या तुम नहीं हो ?

कैसे पता चलता है कि तुम हो ? या नहीं हो ? साँस लेते रहो तो हो और न लो तो नहीं ?

होने और न होने के बीच कुछ और भी होता है क्या ? या सिर्फ़ शून्य ?

तो क्या शून्य कुछ भी नहीं ? तो फिर आकाश क्या है ?

क्या आकाश और शून्य एक ही नहीं हैं ? एक से क्यों लगते हैं फिर ?

मैं क्या हूँ ? शून्य ? या आकाश? या शून्य में बसा एक आकाश ? 

पर आकाश तो सबको दिखाई देता है  ... हमेशा ही !

तो क्या मैं भी हूँ ?

मैं फिर नज़र क्यों नहीं आता !


Thursday, 8 May 2025

Kanupriya

Reminiscences from my diary
May 08, 2025
Thursday 2115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


साजन मिश्र 
अपने साथी की याद लिए 
जप रहे हैं  
राधे राधे 

राग दरबारी 

कि राधे राधे जपते जपते
मिल जाए 
मिल ही जाए 
चितचोर 

चलो मन वृंदावन की ओर 

जिस शिद्दत 
और ध्यान से 
वह पुकारते हैं राधा नाम 
मैं रो पड़ता हूँ  

राधारानी का प्रेम 

सोचता हूँ 
कैसे जिया होगा राधा ने 
कृष्ण के होने से 
अचानक न होने का सफर 

कितने पत्थर पाले होंगे 
सीने पर 
कितनी पीड़ सही होगी 
रेशा रेशा 

आसमान के
किसी भी नक्षत्र को 
तरस नहीं आया होगा क्या
कि एक तारा भी न टूटा 

प्रेम की महानता के लिए बिछोह अनिवार्य है? 

चुनना होता 'गर
कृष्ण के साथ जीना 
या साथ जिए बिना कृष्ण की बगल में खड़े 
कल्पों-कल्प पूजे जाना 

राधा क्या चुनतीं ?

मेरे लिए 
राधा का प्रेम 
नियति की क्रूरता की पराकाष्ठा है
नहीं जाना मुझे वृन्दावन 

मुझे पढ़नी है कनुप्रिया  





Sunday, 4 May 2025

Stains on a letter - 2  (Letters to you - 21)

Reminiscences from my diary
May 04, 2025
Sunday, 1845 IST
Stumpfields, Ooty

नानी अक्सर माँ को 
खाना बनाते हुए 
या खाते हुए 
चिट्ठी लिखा करती होंगी 

जब जब नानी की चिट्ठी आती 
नीले इनलैंड लेटर 
उस पर निशान रहते यहाँ वहाँ 
अचार, आटा, सब्ज़ी, न जाने क्या क्या 

सोचता हूँ, माँ जब 
पढ़ती थीं नानी की चिट्ठियाँ 
उनको अपनी माँ के हाथ का खाना 
कितना याद आता होगा ?

यकीन मानिए, चिट्ठियाँ 
और चिट्ठियों पर पड़े निशान 
आपकी अपेक्षाओं से कहीं अधिक 
क्रूर हो सकते हैं  



Stains on a letter - 1  (Letters to you - 20)

Reminiscences from my diary
May 04, 2025
Sunday, 1830 IST
Stumpfields, Ooty

तुमने पूछा था 
तुम्हें भेजी गईं चिट्ठियाँ 
चिट्ठियाँ ही हैं या 
हैं कविताएँ 

सुनो!
वे न चिट्ठियाँ हैं न कविताएँ 
मेरी डायरी से फाड़े गए पन्ने हैं 
खुद से खुद की बातें हैं 

शिकायतें है, पीड़ है, 
मन का नीर है 
कड़ियाँ हैं अतीत की 
तुम्हारे बीतने की 

तुमने यह भी पूछा था 
इन चिट्ठियों पर
ये हलके पीले, भूरे
निशान कैसे हैं 

तुमने पहचाना कैसे नहीं 
तुम्हारे ही नाम के 
हरसिंगार हैं 
सूखे, मरे हुए 

कि एक दिन जब 
ये फ़ॉसिल मिलेंगे 
वैज्ञानिकों को 
तुम फिर से जी उठोगे 




Thursday, 1 May 2025

Where I flee (Letters to you - 19)

Reminiscences from my diary
May 01, 2025
Thursday 1500 IST
Stumpfield, Ooty

जितना महीन अंतर होता है 
खुलने और उधड़ने में 

उतना ही फ़र्क़ है बस 
भटकने और ग़ुम हो जाने में 

भटकने में रहती है उम्मीद, एक संभावना 
पा जाने की, या मिल जाने की 

और जो ढूँढ पाए तुम्हें कोई 
तो उपजती है टीस दम घोटने वाली  

इसलिए भटको नहीं, खुलो नहीं महज़ 
उधड़ो, खो दो खुद को पूरा का पूरा 

तुम्हें लगता है 
चेहरे ग़ुम हो जाते हैं भीड़ में 

गलत लगता है 
ग़ुम होती है भीड़ चेहरों में कहीं 

मैं कब उधड़ा, फिर कब भीड़ बन गया 
पता ही नहीं चला 

और जब हो ही गया हूँ 
जो बच सकता था होने से शायद 

तो ग़ुम होना चाहता हूँ पूरा का पूरा 
भीड़ सा ही, चेहरों में एक चेहरा 

जिसकी शिनाख़्त कभी भी
कहीं भी न हो पाए