Saturday, 17 May 2025

For my Rumi, part 1

Reminiscences from my diary

May 17, 2025
Saturday 2115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


यूँ हो कि
कोई न हो कहीं भी 
बस   
हम हों और 
सतपुड़ा के जंगल हों
 
नीले पेड़, पीले पत्ते,
रंग - बिरंगे कबूतर 
एक रंग की तितलियाँ 
सफ़ेद भँवरे 
फूल ही फूल 

आम की कोटर से 
महुआ की फुनगियों तक 
फुदकती हों गिलहरियाँ 
हम कुतरें जामुन 
पलाश सुस्ताये, हमें ऊँघाये 

हम बूझ न पाएँ भेद 
जुगनुओं और सितारों में 
धूप भी, बौछार भी 
टिमटिम टिमटिम 
टिपटिप टिपटिप 

झरनों से फूटे इंद्रधनुष 
मैं समेट लूँ जेबों में 
सूरज शरमाये, हवा इठलाये 
चाँद बजाये सीटी, हम खेलें 
छिपने - ढूँढने का खेल 

मेरे बस्ते में हों खूब सारी टॉफियाँ 
और खूब सारी कविताएँ 
और ये भी कि सब ख़्याल हों 
कागज़ी जो उड़ जाएँ 
रूमी की हल्की - सी फूँक से 




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