Rants on Buddha Purnima
Reminiscences from my diary
May 12, 2025
Monday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore
तुम हो - ऐसा तुम्हें लगता है ! तुम अंतर्धान हो जाओ तो ? तो क्या तुम नहीं हो ?
कैसे पता चलता है कि तुम हो ? या नहीं हो ? साँस लेते रहो तो हो और न लो तो नहीं ?
होने और न होने के बीच कुछ और भी होता है क्या ? या सिर्फ़ शून्य ?
तो क्या शून्य कुछ भी नहीं ? तो फिर आकाश क्या है ?
क्या आकाश और शून्य एक ही नहीं हैं ? एक से क्यों लगते हैं फिर ?
मैं क्या हूँ ? शून्य ? या आकाश? या शून्य में बसा एक आकाश ?
पर आकाश तो सबको दिखाई देता है ... हमेशा ही !
तो क्या मैं भी हूँ ?
मैं फिर नज़र क्यों नहीं आता !
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