Tuesday, 29 April 2025

A poem on least favorite food (Letters to you - 18)

Reminiscences from my diary
Apr 29, 2025
Tuesday 2000 IST
Murugeshpalya, Bangalore

मुझे
माँ के हाथ के 
राजमा चावल 
शदीद पसंद हैं 

रंग से लेकर
स्वाद तक 
सब कुछ अलग 
बहुत अलग 

न लाल 
न भूरा 
माँ के राजमा का रंग 
मैरून होता है 

पता नहीं कैसे ले आती हैं 
इतना सुन्दर रंग 
पूछता हूँ 
तो हँस देती हैं बस 

गुजराती ननिहाल है मेरा 
शायद इसलिए या शायद यूँ ही 
माँ का राजमा होता है 
महीन - सा मीठा भी 

डालती हैं उबलते राजमा में 
आधी से भी कम चम्मच चीनी
या शक्कर, और चुटकी-भर से ज़रा ज़्यादा 
गरम मसाला 

राजमा के साथ चावल तो हैं ही 
मुझे पसंद हैं पराठे अजवाइन के 
या मट्ठी या रोटी रुमाली 
या सादा पापड़

कभी कभी तो 
बिना किसी साथ के 
तीन तीन कटोरी राजमा 
खा जाता हूँ मैं 

मुझे, सच, सिर्फ़ 
माँ के हाथ का 
मैरून मीठा राजमा 
बेपनाह पसंद है 

इसी लिए उस रोज़ 
जब तुमने पूछा -
सबसे कम क्या पसंद है खाने में 
तो मुँह से निकल पड़ा था - राजमा चावल 

हाँ ! सबसे कम पसंदीदा भी मुझे 
राजमा चावल ही हैं 
वे जिनमें नहीं होता 
माँ, माँ की भाप का स्पर्श 

Friday, 25 April 2025

All your tricks (Letters to you - 17)

Reminiscences from my diary

Apr 25, 2025
Friday, 2230 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो !

तुम्हारी सभी तरकीबें 
प्रपंच 
कोशिशें 
अफसून 
जादू 
मिन्नतें 

कुछ काम नहीं आएँगी 

जितना जलना है 
जल लो 
जो आज़माना है 
आज़मा लो 

मोहब्बतें हैं 

जितनी तुमसे है, उतनी नहीं 
तो उससे कम भी नहीं 

चाँद से 
जुगनू से 
बारिश से 

मोहब्बतें 

हैं
और रहेंगी 

कि 
बारिशें जुगनू और चाँद 
हैं 
और रहेंगे 


Almost (Letters to you - 16)

Reminiscences from my diary

Apr 25, 2025
Friday, 2045 IST
Murugeshpalya, Bangalore


मैं ठिठक पड़ा था अचानक 

ऐसा कैसे हो सकता है ?

लगभग
वही चेहरा, कद-काठी, 
रंग, आँखें, 
भंवें, होंठ और 
होठों पर पपड़ियाँ 
वैसी ही
लगभग 

दाँत के ऊपर दाँत 
जो चमके सिर्फ़ हँसते हुए  
उसी तरह 
लगभग 

ऑफिस से घर नापते हुए 
पाँव - पाँव 
मेरी दाईं तरफ आता है 
एक छोटा - सा कैफ़े
जिसका सब कुछ हरा है 

पेस्टल ग्रीन 

हल्के हरे रंग का शटर 
हल्के हरे रंग की दीवारें  
खम्बे, काउंटर 
कुर्सियाँ और स्टूल भी 

ऐसे ही एक ऊँचे
पेस्टल ग्रीन स्टूल पर 
तुम्हें बैठे देखा आज 

हाँ ! 
तुम ! लगभग !

मेरी आखें बड़ी 
मुँह खुला 
और दिल धक्-धक् 

मैं बढ़ने लगा था कैफ़े के अंदर
कि तभी 
बाहर निकलते लगभग ने 
काटी मुझे 
चिकुटी 

उसके बाद का पूरा रास्ता 
हँसता रहा मैं 
जैसे कोई बावरा 

लगभग 









Tuesday, 22 April 2025

I met you (Letters to you - 15)

Reminiscences from my diary
Apr 22, 2025
Tuesday, 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कितने मज़े की बात होती 
'गर मैं और तुम में 
होती गुंजाईश 
फेर-बदल की 

कि 'गर कहूँ मैं तुमसे मिला
तो असल में 
मैं होता तुम, और मतलब निकलता 
तुम मुझसे मिले 

कि अपना आपा सँभालने को 
इतनी सी बात भी 
होती काफ़ी और 
मुकम्मल 

 

Monday, 21 April 2025

A poem full of questions (Letters to you - 14) 

Reminiscences from my diary
Apr 21, 2025
Monday, 1615 IST
Ghz 

सुनो, 
मैं 
तुम्हें पल - पल खोजता रहा 
जैसे बौराया जोगी
पर मैं
तुम्हें क्यों ढूँढ नहीं पाया? 

सुनो, 
तुमने कभी 
मुझे
ढूँढने की
कोशिश क्यों नहीं की? 

Sunday, 20 April 2025

Beneath the rust (letters to you - 13) 

Reminiscences from my diary
Apr 21, 2025
Monday 1115 IST
Sre - Ghz


एक आदम दिल को सही तरह से धड़कने के लिए चाहिए होता है सही मात्रा में लोहा

लोहा अगर ज़्यादा हो तो दिल उसे अपने पास महफ़ूज़ रख लेता है

पता ही नहीं चला कब तुम्हारे दिल में इतना जंग लग गया

इतना कि मेरी किताबों में रखे गुड़हल हर मौसम सुर्ख रहते हैं

Friday, 18 April 2025

Glorious Days (Letters to you - 12)

Reminiscences from my diary
Apr 19, 2025
Saturday, 0115 IST
Sre


एक सुबह त्रिशूल पर धूप बिखरी थी 
एक सुबह उँगलियाँ तुम्हारी मेरी पलकों पर 
एक सुबह चार चिनार लिपटे थे धुंध में 
एक सुबह मृत्युंजय को जपते मैं और तुम 

एक दिन गिरी थी बर्फ़ बिन मौसम 
एक दिन झरती बारिश तुम्हारी हथेलियों से 
एक दिन कई - कई तथागत लेटे थे नयन मूंदे 
एक दिन रंग-बिरंगे पत्थर टापते मैं और तुम 

एक शाम नीलगिरि के सिल्हूट में टंका था पूरा चाँद 
एक शाम चार नंगे पाँव सड़क-सड़क 
एक शाम खासी का गीला आसमान था ठेठ गुलाबी 
एक शाम दुनिया सजाते मैं और तुम 

एक रात अचानक 
मैंने डायरी में दर्ज की थी 
कुछ खुशनुमा तारीखें 
कुछ खुशनुमा मैं और तुम 
 

Wednesday, 16 April 2025

A library of faces (Letters to you - 11)

Reminiscences from my diary
Apr 16, 2025
Wednesday, 2145 IST
Sre


आहटों के चेहरे  
छितरे - छितरे से 
बिखरे - बिखरे से 

यत्र तत्र सर्वत्र 

तुम्हारे गुज़रने, और गुज़र जाने की आहट 
छितरी - छितरी सी 
बिखरी - बिखरी सी 

यत्र तत्र 
स 
र्व 
त्र 

Monday, 14 April 2025

Wrapped/Unwrapped (Letters to you - 10)

Reminiscences from my diary
Apr 14, 2025
Monday, 2200 IST
Sre


प्रेम में पड़ो 'गर तो 
खुलो नहीं 

उधड़ो
शिद्दत से 

तार - तार 
ज़ार -ज़ार 

बेपरवाह 
बेधड़क 

कि प्रेम या 
प्रेम की पीड़ ही बनेगी 

अलाव, और  
अलाव की आँच



Saturday, 12 April 2025

Favorite Beverage (Letters to you - 9)

Reminiscences from my diary

Apr 12, 2025
Saturday 2030 IST
Sre


"तुम बात करते-करते यूँ गायब न हुआ करो !"
"अरे! मैं कब गायब ..."
"क्यों! उस दिन? जब हम अमृता की बात कर रहे थे ? तुमने तो तसल्ली दी थी कि अमृता तक मेरी चिट्ठी पहुँच जायेगी! तुम्हारी आस पर ही तो लिखना शुरू किया था  ..."
"बिलकुल पहुँच जायेगी, तुम लिखो तो सही।  हो गयी तुम्हारी छोटी-सी चिट्ठी पूरी ?"
"हुह !"

"बताओ तो! तैयार है अमृता के नाम की चिट्ठी ?"
"नहीं  ..."
"क्यों?"
"हमारी बात कहीं की कहीं चली गयी थी !"
"हमेशा की तरह ?"
"हमेशा की तरह"

"आसमान का लाल देखो। 
"हाँ ! कितना खूबसूरत रंग है !"
"चाय की तलब हो रही है।  पिओगे ?"
"नेकी और पूछ पूछ!"
"मतलब ?"
"कुछ नहीं  ... गंवार!"
"हुह  ..."

"वैसे आजकल एक नई किस्म की चाय का दीवना हूँ मैं "
"कौन सी ?"
"बुराँश की चाय  ..."
"वाह! पहाड़ों वाला बुराँश ?"
"हाँ! पहाड़ों वाला बुराँश  .."
"लाल फूल वाला ?"
"हाँ बाबा! वही  .."
"तो फिर तुम ही बना लो दो कप, हम भी तो देखें  ..."
"ठीक है !"

"वाह ! रंग तो बहुत सुन्दर है।  चटक लाल  ..  कुछ और भी डाला इसमें ?
"चुटकी भर काली मिर्च, आधी से कम चम्मच चीनी, तीन-चार पत्ते तुलसी, और कुछ दाने सौंफ़  .."
"तुम और तुम्हारी काली मिर्च .. "
"जब तक चाय गले  में न लगे, और जीभ पर चिरचिराहट न हो, तब तक चाय का क्या मज़ा  .."
"मियॉँ ! चाय है, चाय ही रहने दो !"
"तुम यूँ करो कि अपनी कड़वी कॉफ़ी बना लो"
"पर फिर इस लाल कप की लाल चाय का क्या होगा ?"
"मैं पी लूँगा "
"पर अब तो झूठी हो गई "
"हुह  ..."

"अगर हम एक ही शहर, एक ही जगह काम कर रहे होते तो यूँ करते कि कॉफ़ी, चाय की छोटी-छोटी शीशियाँ अपने दफ़्तर, अपनी डेस्क पर रखते, और जब कभी तलब उठती, ब्रेक मिलता, तो साथ-साथ सुड़कते  ..."
"बुराँश की पत्तियाँ भी  .."
"हाँ बाबा! बुराँश की लाल पत्तियाँ भी।  उसकी दो बड़ी-बड़ी शीशियाँ रखते।"
"है न! मसरूफ़ियत में भी चाय साथ-साथ, हँसी -ठिठोलियों में भी  ..."
"ऐसा क्यों नहीं हुआ?"
"उसके लिए एक शहर के साथ-साथ, एक ही दुनिया का होना भी तो ज़रूरी था न  ..."
"हुह  ..."

"देखो, बातों बातों में तुमने आधे से ज़्यादा कप खाली कर दिया। अच्छी लगी न?"
"हाँ! अच्छी लगी !"
"मैं न कहता था ! बुराँश के फूलों में पहाड़ बसता है. हिमालय! मैं इनसे बैजनाथ में मिला था। फिर रानीखेत में। नैनीताल ! धीरे-धीरे ऐसी दोस्ती हुई कि नशा बन गयी  ..."
"तुम और तुम्हारे सस्ते नशे  ..."
"हाहा ! रवि भी यही कहता है  .."
"पर जो भी है, चाय अच्छी बनी, और अच्छी लगी !
"बस फिर तय रहा - एक दिन तुम्हारी कॉफ़ी, एक दिन मेरे बुराँश और एक दिन हमारी दूध वाली मसाला-चाय  ..."



Dig Deeper (Letters to you - 8)

Reminiscences from my diary

Apr 12, 2025 
Saturday 1715 IST
Sre


क्या ऐसा होता है तुम्हारे साथ भी कि  ... 

किसी-किसी रात या भोरे-भोर बहुत गहरे सपने आएँ, इतने गहरे कि ... 

उठने के बाद भी देर तक आँखें सूजी रहें, मन भटकता रहे, एक ख़ुमारी छाई रहे  ... 

पर मज़े की बात यह कि सब कुछ ठीक-ठीक याद न आये, तुम करो कोशिश  ...

उस पूरे दिन, और अगले एक-दो दिन, कि जितना जैसा भी याद है, टुकड़ा-टुकड़ा, लम्हा-लम्हा  ...

उन सबको जोड़ो और उकेरो अपना सपना, पर हाथ लगे ... 

सिर्फ़ बदहवासी, अजीबियत, लाचारी कि जितना उतरो थाह में  ... 

उतना ही भूलो सब कुछ, सपनों के अंदर का भी ...

सपनों के बाहर का भी ...  

Wednesday, 9 April 2025

Old Book (Letters to you - 7)

Reminiscences from my diary

April 09, 2025
Wednesday, 2115 IST
Sre


पुरानी किताब नहीं होती 
सिर्फ़ एक पुरानी किताब 

कि उसके अंदर जी रहा होता है  
एक पूरा लम्हा या एक पूरा काल 

कि हो सकता है उसमें किसी अतीत का 
पूरा का पूरा वर्तमान, लेता साँसें चुपचाप 

कि जब पलटें उसके पन्ने तो चिपक जाए 
एक गंध आपके नाखूनों पर, होठों पर, आँखों पर 

कि बौरा जाएँ आप, कोशिश करें याद करने की 
न मृग ढूँढ पाए कस्तूरी, न आप, बस करते रहें कोशिश 

कि इधर-उधर लगाए गए निशान, लिखे गए नोट्स 
बन जाएँ माज़ी में जाने का गूगल मैप

कि कहीं ठहरा हो आँसू , कहीं हँसी, कहीं आधी मुस्कराहट 
और कहीं सुस्ताये हों पूरे के पूरे दिन, और देर ढलती शाम

कि बनाया हो तकिया भी किसी रात, या फिर सपना 
या चिपकाये रखा हो छाती से कभी किसी सफ़र, हमसफ़र

कि उसमें छिपे हों घर वालों से छिपाये प्रेम-पत्र, या कोई पोस्ट-कार्ड
या बनाया हो कभी मरते फूलों का एक सुन्दर कब्रिस्तान 

कि हों शिकायतें दर्ज किसी किरदार से, या घृणा, या कुनमुनाहट 
या हो सिर्फ़ प्रेम, और इतना कि आप खुद हो जाएँ एक किरदार

पुरानी किताब, सच, नहीं होती 
सिर्फ़ एक पुरानी किताब ही 

सुनो,

तुम मेरी सारी पुरानी किताबें लेकर 
अपनी एक पुरानी किताब दोगे ?



Tuesday, 8 April 2025

Ulterior Motives (Letters to you - 6)

Reminiscences from my diary
Tuesday, April 04, 2025
2000 IST, Sre


तुम्हें क्या लगता है

कि मैं जब चाँद को ताका करता  हूँ 
तो क्या मैं 
चाँद को ही देखता हूँ ?

या कि जब भरता हूँ हरसिंगार जेब में 
तो क्या मैं 
हरसिंगार ही चुनता हूँ ?

जब लेता हूँ किसी बरगद को अपनी बाहों में 
तो क्या मैं 
पेड़ को गले लगाता हूँ ?

या लिखता हूँ कोई कविता 
तो क्या मैं 
वाकई लिखता हूँ कोई कविता ?

कि उस रोज़ जब दीवार पर उकेर रहा था मौर्या 
तो क्या मैं 
महज़ रंग रहा था सफ़ेद चूना ?

खैर  .. 

सुनो !

तुम भी 
गाहे - बगाहे 
मुझसे बात करने की कोशिश न किया करो !



Monday, 7 April 2025

In the valley - somewhere in Kashmir (Letters to you - 5)

Reminiscences from my diary
April 07, 2025
Monday 1215 IST

सिंधु घाटी की सभ्यता में 
ज़रूर ही 
एक सिंधु रही होगी 
और एक घाटी 
और एक सभ्यता भी 

ज़ाहिर-सी बात है 

लेकिन तुम्हें यह न पता हो शायद 
कि उस सिंधु को 

मैंने छुआ भी है 
चखा भी 
और नंगे पाँव लाँघा भी

और मैंने चुनी है सिंधु से 
बर्फ़ 
मछलियाँ 
चिनार
पत्थर 
काई 
और आँच 

अपने साथ भी 
तुम्हारे साथ भी 

सिंधु और उसकी घाटी 
एक जन्म का खेला थोड़ी ही है?

Saturday, 5 April 2025

Unfinished manuscript (Letters to you - 4) 

Reminiscences from my diary

Apr 5, 2025
Saturday, 1930 IST
KIA, Bangalore

स्मृतियों के दस्तावेज़
जब स्याही - स्याही 
बुनते हैं
तो
आत्मकथा कहलाते हैं! 

सुनो! 

हम यूँ करेंगे कि
तुम मेरी आत्मकथा लिखना
और
मैं लिखूँगा तुम्हें

फिर
किसी साहित्यिक गोष्ठी में 
कभी कहीं

हम 
अपनी - अपनी 
अपूर्णताओं का उत्सव मनाएँगे! 

Thursday, 3 April 2025

Letter to my favorite poet (Letters to you - 3)


Reminiscences from my diary

April 03, 2025
Thursday, 2340 IST
Murugeshpalya, Bangalore


"सुनो, तुम!"
"हाँ सुनाओ!"
"एक खत लिखने का सोच रहा हूँ !"
"मेरे लिए?"
"हुह!"

"फिर?"
"सोच रहा हूँ अमृता के नाम एक चिठ्ठी लिखूँ, ज़्यादा बड़ी नहीं, छोटी सी, ऐसे ही !"
"हाँ! ज़रूर लिखो! मैं पहुँचा आऊँगा!"
"हाँ! पता है ! तुम्हारे ही भरोसे लिख रहा हूँ !"
"पर अचानक से क्यों ?" 

"अचानक से तो नहीं ! याद है, एक बार पहले भी लिखा था एक खत? एयरपोर्ट से? हॉन्ग कॉन्ग जाते हुए? उस समय रसीदी टिकट हावी थी दिल-ओ-दिमाग पर  .."
"इस बार क्या हुआ? फिर से पढ़ी रसीदी टिकट? या उनके - इमरोज़ के खत?"
"एक बार जून की किसी दोपहरी कॉलेज लाइब्रेरी में शेल्फ से एक पतली किताब उठा ली थी - नज़्मों जैसा कुछ था! यूँ ही, बिलकुल यूँ ही,  एक पैन पर रुक गया था मैं।  जो लिखा था उसे मैंने वहीँ खड़े-खड़े आठ-दस बार पढ़ा, फिर झट से अपनी डायरी में लिख लिया था !"
"ऐसा क्या पढ़ लिया था?"

"फूलों का एक काफिला था, आज वह रेगिस्तान से गुज़रा 
मेरी दोस्ती के ज़ख़्म तेरी याद ने सीए थे 
आज मैंने टाँके खोलकर वह धागा तुझे लौटा दिया 
मेरी रात जाग रही है तेरा ख़याल सो गया!"

"हाय! यह तो बहुत सुन्दर है!"
"है न! मुझे याद है वो तड़प जो इस नज़्म को पढ़कर महसूस की थी मैंने! कवर देखा, तो पाया किसी अमृता प्रीतम ने लिखी हैं ! ऐसे आईं अमृता ज़िन्दगी में ! यूँ ही ! अचानक! 
"मेरा आना भी तो ऐसे ही हुआ था ! अचानक!"
"और जाना भी ! हुह !"

"अच्छा, क्या लिखने का सोचा है?"
"बहुत कुछ! पर कुछ लिखने बैठता हूँ तो न ओर मिलता है न छोर ! मैं समझ नहीं पाता क्या लिखूँ , क्या क्या लिखूँ!"
"मैं मदद करूँ ?"
"हाँ ! बिलकुल! बताओ, कहाँ से शुरू करूँ?"
"ग्रेटिट्यूड से कर सकते हो! उनके आने से ही तो कविताओं की शुरुआत हुई ! है न?"
"हाँ! उनका अचानक से आना, तुम्हारा अचानक से जाना ! दोनों बातें साथ-साथ ही घटी थीं!"
"हुह !"

"ठीक है वैसे! खत की शुरुआत शुक्रिया से करूँगा कि न होती अमृता की नज़्में, कहानियाँ, उपन्यास, और रसीदी टिकट, तो मैं कैसे जूझ पाता उन दिनों से जिनका शून्य अन्यथा किसी भी तरह भर ही न पाता!"
"कोई प्रिय कविता?"
"एक हो तो बताऊँ! 'मैं तुम्हें फिर मिलूँगी' को इतनी बार पढ़ा कि मुँह-ज़बानी याद हो गयी। उनके सपनों की कड़ी पढ़कर लगता है शिव और साईं यहीं कहीं हैं ! कहानियों के किरदार ऐसे कि लगता है आस-पास के लोग उठकर किताब के भीतर चले गए हों! रसीदी टिकट तो अपने आप में प्रेम-ग्रन्थ है ही ! अमृता के शब्दों में अपना मौन पाया मैंने ! अमृता की टीस में तुम्हारा बिछोह  .."

"और वो सिगरेट वाली बात? उसका ज़िक्र भी कर दो  .."
"सही याद दिलाया ! उनसे कुछ सिगरेट के बड माँग लेता हूँ ! मंदिर में माला रखी है जिस पर तुम्हारी उँगलियाँ फिरकर साईं को एक सौ आठ बार याद करतीं थीं ! वहीँ रख लूँगा सिगरेट के बड भी  .."
"ओह ! मुझे लगा था वो माला मैंने कहीं गुमा दी  .."
"किसी का गुमा हुआ कल किसी और का आज बन जाता है  .. "
"समझ नहीं आया !"
"हुह !"

"अच्छा! और क्या लिखोगे?"
"और लिखूँगा कि मैं दीवाना हूँ अमृता का ! इमरोज़ की तरह न सही, इमरोज़ से कम भी नहीं  ..  या फिर जैसे अमृता मीरा थी साहिर की  .. कि जैसे इमरोज़ साथ न होते हुए भी उनके हर सफ़र में साथ रहे, और जैसे अमृता सींचती रहीं साँस साहिर की आँच से  ..  वैसे ही  ..  हाँ, सच कहता हूँ, वैसे ही, अमृता भी मेरे इर्द-गिर्द ही रहती हैं , तुम्हारी तरह !"

"रुको! यह चिट्ठी मेरे लिए है या अमृता के लिए ?"
"मैं भी यही सोच रहा हूँ  ..."
"क्या?"
"कि तुम और अमृता एक कब हो गए  ..."



 

Wednesday, 2 April 2025

Forgotten picture(s) (Letters to you - 2)

Reminiscences from my diary

April 2, 2025
Wednesday, 2230 IST
Murugeshpalya, Bangalore

एक बात बताओ 
तुमने और मैंने 
कभी कोई तस्वीर 
साथ क्यों नहीं खिचवाई?

कि 'गर खिचवाई होती 
तो 
मैं यूँ करता कि 
तुम्हारे जाने का बाद 

तुम्हारी तस्वीर को 
तक-तक ताकता 
हँसता रोता 
बातें शिकायतें करता 

बुनता उम्मीदें 
इंतज़ार और उन्स 
रंग-रंग रेशा-रेशा 
तुम्हें बनाता बुकमार्क 

और फिर किसी एक दिन 
किसी किताब या डायरी में 
चिनार के पत्ते के साथ रख 
भूल जाता 

कि 'गर खिचवाई होती 
तो आज 
भूली-बिसरी तस्वीरों पर 
मैं भी कुछ लिख पाता 

Tuesday, 1 April 2025

Soap bubbles (letter to you - 1)

Reminiscences from my diary

April 01, 2025
Tuesday, 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


बाबा जो थे हमारे  
पिता के पिता 
जाते भादो की शामों में 

हम भाई-बहन को 
रिक्शा में बिठाते 
और गुग्घा पीर के मेले ले जाते 

कल्पना टाकीज़ के आस-पास लगता था
शायद, या फिर दर्पण सिनेमा 
ठीक-ठीक नहीं याद 

जो याद है वो ये कि 
हम चहकते हुए जाते 
चहकते हुए आते 

न मुझे, न ही बहन को मेरी 
खिलौनों का शौक रहा 
हम बाबा से ज़िद करते 

झूलों की 
कई-कई झूले झूलते हम 
झूलों से जितनी बार बाबा दिखते 

उतनी ही बार 
हम उन्हें पुकारते, चिल्लाते 
उनकी तरफ हाथ हिलाते 

बाबा तब तक पान चबाते 
कभी-कभी सिगरेट पीते 
और कभी लिम्का भी 

झूले लेकर थोड़ी देर तक 
हम हाँफते, फिर साँस भरते
फिर बाबा की ऊँगली पकड़ चल पड़ते 

छोटे गुब्बारों पर निशाना साधने 
बुढ़िया के बाल खाने 
नंदन चम्पक चंदामामा खरीदने 

इन सब क्रिया-कलापों में 
हम तीनों की नज़रें ढूँढती रहती 
उसको जो बेच रहा हो बुलबुले 

कि एक पाइप जैसी चीज़ को 
साबुन के पानी में डुबाओ और फूँक मारो 
तो आपके चारों तरफ 

बुलबुले
हसीन बुलबुले 
हसीन रंगीन बुलबुले 

छोटे बड़े बुलबुले 
पुट् से फूटते बुलबुले 
धनक समेटे बुलबुले 

जैसे ही हमें दिखाई देता 'बुलबुले-वाला'
हम बौरा जाते, बाबा भी, सच 
और झट् से खरीद लेते पांच-छः पैकेट 

वापसी में, और वापसी के बाद घर में 
बुलबुलों की बारात जिमी रहती 
जहाँ फूटते साबुन का पानी छोड़ जाते 

माँ बड़बड़ाती 
बाबा मुस्कुराते 
पिता अदृश्य 

फिर एक साल बाबा बीमार हुए 
हम गुग्घा पीर के मेले नहीं जा पाए 
बाबा ने घर में ही की कोशिश 

ठीक अनुपात में साबुन का पानी घोला 
लोहे के तार से पाइप भी बनाया 
फिर फूँक मारी, जैसे जादूगर 

बुलबुले बने
पर वैसे नहीं 
कहीं कुछ कमी थी, हम नहीं जान पाए  

हम निराश हुए 
बाबा भी 
फिर और कुछ महीनों बाद 

बाबा चले गए 
बुलबुला जैसे एकदम 
गायब हो जाता है - पूरा का पूरा 

हम भाई-बहन फिर कभी 
मेले नहीं गए 
नहीं उड़ाए बुलबुले कभी 

सुनो, 
उस एक दिन जब 
तुमने कहा था कि 

तुम्हारी अम्मा नहीं रहीं 
पिता की माँ 
मैं तुमसे पूछना चाहता था 

तुमने भी 
अपनी अम्मा के साथ 
बुलबुलों में ज़िन्दगी जी है ?