Thursday, 3 April 2025

Letter to my favorite poet (Letters to you - 3)


Reminiscences from my diary

April 03, 2025
Thursday, 2340 IST
Murugeshpalya, Bangalore


"सुनो, तुम!"
"हाँ सुनाओ!"
"एक खत लिखने का सोच रहा हूँ !"
"मेरे लिए?"
"हुह!"

"फिर?"
"सोच रहा हूँ अमृता के नाम एक चिठ्ठी लिखूँ, ज़्यादा बड़ी नहीं, छोटी सी, ऐसे ही !"
"हाँ! ज़रूर लिखो! मैं पहुँचा आऊँगा!"
"हाँ! पता है ! तुम्हारे ही भरोसे लिख रहा हूँ !"
"पर अचानक से क्यों ?" 

"अचानक से तो नहीं ! याद है, एक बार पहले भी लिखा था एक खत? एयरपोर्ट से? हॉन्ग कॉन्ग जाते हुए? उस समय रसीदी टिकट हावी थी दिल-ओ-दिमाग पर  .."
"इस बार क्या हुआ? फिर से पढ़ी रसीदी टिकट? या उनके - इमरोज़ के खत?"
"एक बार जून की किसी दोपहरी कॉलेज लाइब्रेरी में शेल्फ से एक पतली किताब उठा ली थी - नज़्मों जैसा कुछ था! यूँ ही, बिलकुल यूँ ही,  एक पैन पर रुक गया था मैं।  जो लिखा था उसे मैंने वहीँ खड़े-खड़े आठ-दस बार पढ़ा, फिर झट से अपनी डायरी में लिख लिया था !"
"ऐसा क्या पढ़ लिया था?"

"फूलों का एक काफिला था, आज वह रेगिस्तान से गुज़रा 
मेरी दोस्ती के ज़ख़्म तेरी याद ने सीए थे 
आज मैंने टाँके खोलकर वह धागा तुझे लौटा दिया 
मेरी रात जाग रही है तेरा ख़याल सो गया!"

"हाय! यह तो बहुत सुन्दर है!"
"है न! मुझे याद है वो तड़प जो इस नज़्म को पढ़कर महसूस की थी मैंने! कवर देखा, तो पाया किसी अमृता प्रीतम ने लिखी हैं ! ऐसे आईं अमृता ज़िन्दगी में ! यूँ ही ! अचानक! 
"मेरा आना भी तो ऐसे ही हुआ था ! अचानक!"
"और जाना भी ! हुह !"

"अच्छा, क्या लिखने का सोचा है?"
"बहुत कुछ! पर कुछ लिखने बैठता हूँ तो न ओर मिलता है न छोर ! मैं समझ नहीं पाता क्या लिखूँ , क्या क्या लिखूँ!"
"मैं मदद करूँ ?"
"हाँ ! बिलकुल! बताओ, कहाँ से शुरू करूँ?"
"ग्रेटिट्यूड से कर सकते हो! उनके आने से ही तो कविताओं की शुरुआत हुई ! है न?"
"हाँ! उनका अचानक से आना, तुम्हारा अचानक से जाना ! दोनों बातें साथ-साथ ही घटी थीं!"
"हुह !"

"ठीक है वैसे! खत की शुरुआत शुक्रिया से करूँगा कि न होती अमृता की नज़्में, कहानियाँ, उपन्यास, और रसीदी टिकट, तो मैं कैसे जूझ पाता उन दिनों से जिनका शून्य अन्यथा किसी भी तरह भर ही न पाता!"
"कोई प्रिय कविता?"
"एक हो तो बताऊँ! 'मैं तुम्हें फिर मिलूँगी' को इतनी बार पढ़ा कि मुँह-ज़बानी याद हो गयी। उनके सपनों की कड़ी पढ़कर लगता है शिव और साईं यहीं कहीं हैं ! कहानियों के किरदार ऐसे कि लगता है आस-पास के लोग उठकर किताब के भीतर चले गए हों! रसीदी टिकट तो अपने आप में प्रेम-ग्रन्थ है ही ! अमृता के शब्दों में अपना मौन पाया मैंने ! अमृता की टीस में तुम्हारा बिछोह  .."

"और वो सिगरेट वाली बात? उसका ज़िक्र भी कर दो  .."
"सही याद दिलाया ! उनसे कुछ सिगरेट के बड माँग लेता हूँ ! मंदिर में माला रखी है जिस पर तुम्हारी उँगलियाँ फिरकर साईं को एक सौ आठ बार याद करतीं थीं ! वहीँ रख लूँगा सिगरेट के बड भी  .."
"ओह ! मुझे लगा था वो माला मैंने कहीं गुमा दी  .."
"किसी का गुमा हुआ कल किसी और का आज बन जाता है  .. "
"समझ नहीं आया !"
"हुह !"

"अच्छा! और क्या लिखोगे?"
"और लिखूँगा कि मैं दीवाना हूँ अमृता का ! इमरोज़ की तरह न सही, इमरोज़ से कम भी नहीं  ..  या फिर जैसे अमृता मीरा थी साहिर की  .. कि जैसे इमरोज़ साथ न होते हुए भी उनके हर सफ़र में साथ रहे, और जैसे अमृता सींचती रहीं साँस साहिर की आँच से  ..  वैसे ही  ..  हाँ, सच कहता हूँ, वैसे ही, अमृता भी मेरे इर्द-गिर्द ही रहती हैं , तुम्हारी तरह !"

"रुको! यह चिट्ठी मेरे लिए है या अमृता के लिए ?"
"मैं भी यही सोच रहा हूँ  ..."
"क्या?"
"कि तुम और अमृता एक कब हो गए  ..."



 

No comments:

Post a Comment