Saturday, 12 April 2025

Favorite Beverage (Letters to you - 9)

Reminiscences from my diary

Apr 12, 2025
Saturday 2030 IST
Sre


"तुम बात करते-करते यूँ गायब न हुआ करो !"
"अरे! मैं कब गायब ..."
"क्यों! उस दिन? जब हम अमृता की बात कर रहे थे ? तुमने तो तसल्ली दी थी कि अमृता तक मेरी चिट्ठी पहुँच जायेगी! तुम्हारी आस पर ही तो लिखना शुरू किया था  ..."
"बिलकुल पहुँच जायेगी, तुम लिखो तो सही।  हो गयी तुम्हारी छोटी-सी चिट्ठी पूरी ?"
"हुह !"

"बताओ तो! तैयार है अमृता के नाम की चिट्ठी ?"
"नहीं  ..."
"क्यों?"
"हमारी बात कहीं की कहीं चली गयी थी !"
"हमेशा की तरह ?"
"हमेशा की तरह"

"आसमान का लाल देखो। 
"हाँ ! कितना खूबसूरत रंग है !"
"चाय की तलब हो रही है।  पिओगे ?"
"नेकी और पूछ पूछ!"
"मतलब ?"
"कुछ नहीं  ... गंवार!"
"हुह  ..."

"वैसे आजकल एक नई किस्म की चाय का दीवना हूँ मैं "
"कौन सी ?"
"बुराँश की चाय  ..."
"वाह! पहाड़ों वाला बुराँश ?"
"हाँ! पहाड़ों वाला बुराँश  .."
"लाल फूल वाला ?"
"हाँ बाबा! वही  .."
"तो फिर तुम ही बना लो दो कप, हम भी तो देखें  ..."
"ठीक है !"

"वाह ! रंग तो बहुत सुन्दर है।  चटक लाल  ..  कुछ और भी डाला इसमें ?
"चुटकी भर काली मिर्च, आधी से कम चम्मच चीनी, तीन-चार पत्ते तुलसी, और कुछ दाने सौंफ़  .."
"तुम और तुम्हारी काली मिर्च .. "
"जब तक चाय गले  में न लगे, और जीभ पर चिरचिराहट न हो, तब तक चाय का क्या मज़ा  .."
"मियॉँ ! चाय है, चाय ही रहने दो !"
"तुम यूँ करो कि अपनी कड़वी कॉफ़ी बना लो"
"पर फिर इस लाल कप की लाल चाय का क्या होगा ?"
"मैं पी लूँगा "
"पर अब तो झूठी हो गई "
"हुह  ..."

"अगर हम एक ही शहर, एक ही जगह काम कर रहे होते तो यूँ करते कि कॉफ़ी, चाय की छोटी-छोटी शीशियाँ अपने दफ़्तर, अपनी डेस्क पर रखते, और जब कभी तलब उठती, ब्रेक मिलता, तो साथ-साथ सुड़कते  ..."
"बुराँश की पत्तियाँ भी  .."
"हाँ बाबा! बुराँश की लाल पत्तियाँ भी।  उसकी दो बड़ी-बड़ी शीशियाँ रखते।"
"है न! मसरूफ़ियत में भी चाय साथ-साथ, हँसी -ठिठोलियों में भी  ..."
"ऐसा क्यों नहीं हुआ?"
"उसके लिए एक शहर के साथ-साथ, एक ही दुनिया का होना भी तो ज़रूरी था न  ..."
"हुह  ..."

"देखो, बातों बातों में तुमने आधे से ज़्यादा कप खाली कर दिया। अच्छी लगी न?"
"हाँ! अच्छी लगी !"
"मैं न कहता था ! बुराँश के फूलों में पहाड़ बसता है. हिमालय! मैं इनसे बैजनाथ में मिला था। फिर रानीखेत में। नैनीताल ! धीरे-धीरे ऐसी दोस्ती हुई कि नशा बन गयी  ..."
"तुम और तुम्हारे सस्ते नशे  ..."
"हाहा ! रवि भी यही कहता है  .."
"पर जो भी है, चाय अच्छी बनी, और अच्छी लगी !
"बस फिर तय रहा - एक दिन तुम्हारी कॉफ़ी, एक दिन मेरे बुराँश और एक दिन हमारी दूध वाली मसाला-चाय  ..."



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