Tuesday, 1 April 2025

Soap bubbles (letter to you - 1)

Reminiscences from my diary

April 01, 2025
Tuesday, 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


बाबा जो थे हमारे  
पिता के पिता 
जाते भादो की शामों में 

हम भाई-बहन को 
रिक्शा में बिठाते 
और गुग्घा पीर के मेले ले जाते 

कल्पना टाकीज़ के आस-पास लगता था
शायद, या फिर दर्पण सिनेमा 
ठीक-ठीक नहीं याद 

जो याद है वो ये कि 
हम चहकते हुए जाते 
चहकते हुए आते 

न मुझे, न ही बहन को मेरी 
खिलौनों का शौक रहा 
हम बाबा से ज़िद करते 

झूलों की 
कई-कई झूले झूलते हम 
झूलों से जितनी बार बाबा दिखते 

उतनी ही बार 
हम उन्हें पुकारते, चिल्लाते 
उनकी तरफ हाथ हिलाते 

बाबा तब तक पान चबाते 
कभी-कभी सिगरेट पीते 
और कभी लिम्का भी 

झूले लेकर थोड़ी देर तक 
हम हाँफते, फिर साँस भरते
फिर बाबा की ऊँगली पकड़ चल पड़ते 

छोटे गुब्बारों पर निशाना साधने 
बुढ़िया के बाल खाने 
नंदन चम्पक चंदामामा खरीदने 

इन सब क्रिया-कलापों में 
हम तीनों की नज़रें ढूँढती रहती 
उसको जो बेच रहा हो बुलबुले 

कि एक पाइप जैसी चीज़ को 
साबुन के पानी में डुबाओ और फूँक मारो 
तो आपके चारों तरफ 

बुलबुले
हसीन बुलबुले 
हसीन रंगीन बुलबुले 

छोटे बड़े बुलबुले 
पुट् से फूटते बुलबुले 
धनक समेटे बुलबुले 

जैसे ही हमें दिखाई देता 'बुलबुले-वाला'
हम बौरा जाते, बाबा भी, सच 
और झट् से खरीद लेते पांच-छः पैकेट 

वापसी में, और वापसी के बाद घर में 
बुलबुलों की बारात जिमी रहती 
जहाँ फूटते साबुन का पानी छोड़ जाते 

माँ बड़बड़ाती 
बाबा मुस्कुराते 
पिता अदृश्य 

फिर एक साल बाबा बीमार हुए 
हम गुग्घा पीर के मेले नहीं जा पाए 
बाबा ने घर में ही की कोशिश 

ठीक अनुपात में साबुन का पानी घोला 
लोहे के तार से पाइप भी बनाया 
फिर फूँक मारी, जैसे जादूगर 

बुलबुले बने
पर वैसे नहीं 
कहीं कुछ कमी थी, हम नहीं जान पाए  

हम निराश हुए 
बाबा भी 
फिर और कुछ महीनों बाद 

बाबा चले गए 
बुलबुला जैसे एकदम 
गायब हो जाता है - पूरा का पूरा 

हम भाई-बहन फिर कभी 
मेले नहीं गए 
नहीं उड़ाए बुलबुले कभी 

सुनो, 
उस एक दिन जब 
तुमने कहा था कि 

तुम्हारी अम्मा नहीं रहीं 
पिता की माँ 
मैं तुमसे पूछना चाहता था 

तुमने भी 
अपनी अम्मा के साथ 
बुलबुलों में ज़िन्दगी जी है ?



No comments:

Post a Comment