Saturday, 5 July 2025

The weekend poignance

Reminiscences from my diary
July 05, 2025
Saturday 2330 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक उदासी है, बदहवासी जैसी, 
जो हर चौथे-पाँचवे दिन धमक पड़ती है, मानो
चौखट के पास, या किसी खिड़की की ओट में, या छत को जाती सीढ़ियों पर लगे मकड़ी के किसी जाले में छिपी बैठी गिन रही हो 
पहर-पहर, दिन-दिन अपने पैने नाखूनों पर कि 
कब कुछ दिन बीतें और कब फिर से -
घुस जाए मेरे घर, मेरे कमरे, मेरी रसोई में 
सुस्ताने दो-ढाई दिनों के लिए 
मैं बहुत जतन करता हूँ  
धूप जलाता हूँ, एग्जॉस्ट चलाता हूँ, रखता हूँ रोशनदान, खिड़कियाँ, दरवाज़े खुले 
फ़र्श रगड़ता हूँ, पर्दे झाड़ता हूँ, ख़ुशामद भी करता हूँ 
पर कम्बख़्त यूँ डेरा डालती है जैसे यह घर मेरा नहीं इसका हो हमेशा से 
मैं इसे घर में छोड़ निकल पड़ता हूँ चुपचाप, कहीं भी 
शाम-शाम, रात-रात 
अर्ज़ियाँ लगाता हूँ साईं से, नानक से
कि मदद करें, पीछा छुड़ाएँ मेरा 
वे मुस्कुरा देते हैं जैसे तथागत, और छोड़ देते हैं मुझे मेरे हाल पर 
चाँद को पुकारता हूँ फिर, कभी आता है, कभी नहीं, कभी आकर भी नहीं,
मसरूफ़ रहने लगा है इन दिनों, हो भी क्यों न 
उस पर नज़्में लिखने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं 
घंटों भटकने के बाद आता हूँ वापस 
धीरे से, बिना आहट जैसे चोर 
जूते उतारता हूँ, सहलाता हूँ अपने पाँव
बिस्तर संवारता हूँ, दो घूँट पानी पीता हूँ और लेट जाता हूँ थका-हारा
ढेर सारी नींद, नींद में ढेर सारे सपने बँधाते हैं मेरा ढाढस 
मैं सोता रहता हूँ घुटनों को छाती से लगाए 
ग़फ़लत का आलम चलता रहता है यूँ ही 
बीत जाते हैं ये दो-ढाई दिन हमेशा की ही तरह 
कतरा-कतरा 

अगली भोर जब आँख खुलती है तो
कमरा लगता है एक सराय 
मेरी पीठ पर मचल रही होती है एक चस -चस 
और मुट्ठियों में होते हैं ढेर सारे हरसिंगार 





Wednesday, 2 July 2025

The forest whispers

Reminiscences from my diary

July 02, 2025
Wednesday 1945 IST
Murugeshpalya, Bangalore

सुनो !

किसी जंगल की साँस महसूस की है कभी ?
या उसकी आँच
अपनी धमनियों में ?
साँस की आँच में -
आस भी होती है क्या ?

अच्छा यह बताओ -

किसी आस में डूबे हो कभी ?
बेसुध बेसबब बैरागी 
'गर हाँ तो फिर भी डर लगता है कभी ?
यूँ ही किसी शह से ?
पीड़ से ?
या ख़ुद से ?
या ख़ुदा से ?

यूँ करो - 

सारे डर समेटो 
उन्हें हथेली पर रखो कभी और 
फूँक मार उड़ा दो पंखुड़ी-पंखुड़ी 
या बो दो -
किसी बरगद के नीचे 
छोड़ आओ अपनी पीड़ -
किसी पंछी के नीड़ 

जान पाओ तो जान लो -

वहाँ पोखरों में सुस्ताता है मेंह 
हरे रंग में होते हैं कई कई रंग 
साँझ पखारती है चुप्पियों की देह 
जुगनू बीनते हैं लौट आने की दस्तक 
और 
पतझड़ के बाद भी होता है एक और पतझड़ !

कुछ राज़ सिर्फ़ जंगल जानता है !



Sunday, 22 June 2025

Hope

Reminiscences from my diary

Sunday June 22, 2025
2200 IST
Murugeshpalya, Bangalore


ऑटो-रिक्शा में बैठा एक आदमी 
आँखें बंद किये बड़े इत्मीनान से 
चिन-मुद्रा में 

फुटपाथ पर दो लड़के रेस लगाते हुए 
अंधाधुन्द पड़ते पाँव 
झड़े हुए फूलों को कुचले बिना 

सड़क किनारे खाली बेंच
थोड़ी धूप थोड़ी बारिश और एक लड़की 
न फ़ोन न छाता, हाथ में बस एक किताब 

एक-दूसरे के गले में हाथ डाले
तीन बच्चे, स्कूल यूनिफार्म, नंगे पाँव, भारी बस्ते 
झूमते, फुदकते, दौड़ते, ठहरते
 
कुछ है जो बिखरा ही सही
पर बचा हुआ है 
मुस्कुराता, महकता जैसे 

हर साँझ रख देता हो कोई 
शमी के पास
एक सुलगता लोबान  

Tuesday, 17 June 2025

The weird metaphors of voids

Reminiscences from my diary

June 17, 2025
Tuesday 1815 IST
Murugeshpalya, Bangalore


एक रिक्तता 
तुम्हारे होने पर

जैसे 
विशाल मरू कोई 
रेत ही रेत जहाँ तक घूमे नज़र 
और उसमें डूबते 
तारे, नक्षत्र और जुगनू 

एक रिक्तता
तुम्हारे न होने से भी 

मानो 
गुनगुनी धूप में 
पीर-पंजाल की पिघलती बर्फ़
और उसे चूमते 
सघन देवदार   

किसी एक रोज़ 
यूँ होगा कि 
समय लेगा उबासी 
ठिठकेगा 
बौरायेगा, और 
कर देगा सब उलट-पुलट 

समय को पता है 

कुछ रिक्तताओं की होती है 
अपनी ही नियति 
अपने ही रूपक 
अपना ही व्याकरण 



Monday, 16 June 2025

And you still survive?

Reminiscences from my diary

June 16, 2025
Monday 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


फ़क़त इतनी-सी बात है 
कि कभी-कभी 

आपसे आपका आप 
सम्भाले नहीं सम्भलता 

एक घुटन जो जाती नहीं 
एक साँस जो आती नहीं 

जैसे कोई भोंके खंजर
सलीके से, धीरे-धीरे, बार-बार

जिस्म ख़ून-ख़ून
आँख बंजर-बंजर 

अंदर छाती में या आस-पास कहीं 
एक या फिर कई दर्द अजीब

यूँ कि जैसे समंदर का सारा ख़ारा 
मसल दिया हो ज़ख्म-ज़ख्म 

फिर भी न चीख़ न अश्क़
कि हो हयात ग़ुम-ज़दा 

हाँ! फ़क़त इतनी-सी ही बात है 
कि कभी-कभी 

एक कहानी, या आलम ठहर जाता है, और 
चलता चलता है पहर-दर-पहर 


Monday, 2 June 2025

Monsoon

Reminiscences from my diary
June 02, 2025
Monday 2230 IST

तुम्हें होना था 

आषाढ़ की गोधूलि
साँझ, साँझ का दीया
दीये की धुनी 
धुनी के धुएँ में नाचते प्रेत 
प्रेतों की प्रार्थना 
प्रार्थनाओं के शब्द 

और होना था 

सावन की बारिश पहली 
और दूसरी 
और तीसरी 
हर फुहार, हर मूसलाधार बरसात 
बरसात की सीलन 
सीलन की गंध 

और 

भोर का लाल 
दोपहरी का अलसाया 
शाम का उन्माद 
रात का सुनसान 
दिन - दिन
हर दिन हर पहर 

तुमने चुना होना 

भादो की बयार 
कचोटती हवा 
दिशाहीन
अंतहीन 
बंजारन 
बैरागिन 
 
होना ही होगा यूँ 
इसीलिए हुआ ऐसा 
टूटते तारे 
झूठे 
झूठी ही 
पलकों वाली मन्नतें 

ख़ैर 

मेरा तुम बनना क्यूँकर हुआ
अगर तुम्हें मैं नहीं होना था ?
मुझसे होकर गुज़रना
तुम्हारा 
मुझे मौसम-मौसम 
रेशा-रेशा रीत गया  



Saturday, 31 May 2025

25 presents for you in 2025

Reminiscences from my diary
May 31, 2025
Saturday 2345 IST
Murugeshpalya, Bangalore


दस तरह के नाखूनों की उपमा लिए -
दस तरह के पोस्ट-कार्ड्स 
एक खूबसूरत, ताले वाली डायरी 
बैंगनी रंग का फाउंटेन पेन 
मुराकामी की कोई किताब 
किताब का बुकमार्क -
एक सूखा हरसिंगार 

काँच के मर्तबान में -
बुरांश की सुर्ख़ पंखुड़ियाँ 
बेल-पत्तों की नक्काशी वाली -
कांसे की एक बोतल 
तुम्हारे नाम का एक कॉफ़ी का मग
कश्मीर का केसर 
केसर में छिपाया -
एक सूखा हरसिंगार 

याक की ऊन से बनी -
एक गर्म टोपी  
फीते वाली हथघड़ी 
हरे रंग का लम्बा कुर्ता 
हरे ही रंग की बुशर्ट 
बुशर्ट की जेब में 
एक सूखा हरसिंगार 

आते सावन की हवा में खनकता -
चीनी-मिट्टी का विंड-चाइम 
टेलर स्विफ्ट का -
सबसे पुराना रिकॉर्ड 
एक खाली फोटो-एल्बम 
रोज़मर्रा के लिए एक बस्ता 
बस्ते के अंदर कहीं -
एक सूखा हरसिंगार 

एक गुल्लक फूटने वाली 
एक रैकेट बैडमिंटन का 
एक बुद्ध मुस्कुराते हुए 
एक ग्रीटिंग-कार्ड शुभकामनाओं भरा 
ग्रीटिंग-कार्ड के लिफ़ाफ़े में 
एक सूखा हरसिंगार 



Saturday, 17 May 2025

For my Rumi, part 1

Reminiscences from my diary

May 17, 2025
Saturday 2115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


यूँ हो कि
कोई न हो कहीं भी 
बस   
हम हों और 
सतपुड़ा के जंगल हों
 
नीले पेड़, पीले पत्ते,
रंग - बिरंगे कबूतर 
एक रंग की तितलियाँ 
सफ़ेद भँवरे 
फूल ही फूल 

आम की कोटर से 
महुआ की फुनगियों तक 
फुदकती हों गिलहरियाँ 
हम कुतरें जामुन 
पलाश सुस्ताये, हमें ऊँघाये 

हम बूझ न पाएँ भेद 
जुगनुओं और सितारों में 
धूप भी, बौछार भी 
टिमटिम टिमटिम 
टिपटिप टिपटिप 

झरनों से फूटे इंद्रधनुष 
मैं समेट लूँ जेबों में 
सूरज शरमाये, हवा इठलाये 
चाँद बजाये सीटी, हम खेलें 
छिपने - ढूँढने का खेल 

मेरे बस्ते में हों खूब सारी टॉफियाँ 
और खूब सारी कविताएँ 
और ये भी कि सब ख़्याल हों 
कागज़ी जो उड़ जाएँ 
रूमी की हल्की - सी फूँक से 




Monday, 12 May 2025

Rants on Buddha Purnima

Reminiscences from my diary

May 12, 2025
Monday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


तुम हो - ऐसा तुम्हें लगता है ! तुम अंतर्धान हो जाओ तो ? तो क्या तुम नहीं हो ?

कैसे पता चलता है कि तुम हो ? या नहीं हो ? साँस लेते रहो तो हो और न लो तो नहीं ?

होने और न होने के बीच कुछ और भी होता है क्या ? या सिर्फ़ शून्य ?

तो क्या शून्य कुछ भी नहीं ? तो फिर आकाश क्या है ?

क्या आकाश और शून्य एक ही नहीं हैं ? एक से क्यों लगते हैं फिर ?

मैं क्या हूँ ? शून्य ? या आकाश? या शून्य में बसा एक आकाश ? 

पर आकाश तो सबको दिखाई देता है  ... हमेशा ही !

तो क्या मैं भी हूँ ?

मैं फिर नज़र क्यों नहीं आता !


Thursday, 8 May 2025

Kanupriya

Reminiscences from my diary
May 08, 2025
Thursday 2115 IST
Murugeshpalya, Bangalore


साजन मिश्र 
अपने साथी की याद लिए 
जप रहे हैं  
राधे राधे 

राग दरबारी 

कि राधे राधे जपते जपते
मिल जाए 
मिल ही जाए 
चितचोर 

चलो मन वृंदावन की ओर 

जिस शिद्दत 
और ध्यान से 
वह पुकारते हैं राधा नाम 
मैं रो पड़ता हूँ  

राधारानी का प्रेम 

सोचता हूँ 
कैसे जिया होगा राधा ने 
कृष्ण के होने से 
अचानक न होने का सफर 

कितने पत्थर पाले होंगे 
सीने पर 
कितनी पीड़ सही होगी 
रेशा रेशा 

आसमान के
किसी भी नक्षत्र को 
तरस नहीं आया होगा क्या
कि एक तारा भी न टूटा 

प्रेम की महानता के लिए बिछोह अनिवार्य है? 

चुनना होता 'गर
कृष्ण के साथ जीना 
या साथ जिए बिना कृष्ण की बगल में खड़े 
कल्पों-कल्प पूजे जाना 

राधा क्या चुनतीं ?

मेरे लिए 
राधा का प्रेम 
नियति की क्रूरता की पराकाष्ठा है
नहीं जाना मुझे वृन्दावन 

मुझे पढ़नी है कनुप्रिया  





Sunday, 4 May 2025

Stains on a letter - 2  (Letters to you - 21)

Reminiscences from my diary
May 04, 2025
Sunday, 1845 IST
Stumpfields, Ooty

नानी अक्सर माँ को 
खाना बनाते हुए 
या खाते हुए 
चिट्ठी लिखा करती होंगी 

जब जब नानी की चिट्ठी आती 
नीले इनलैंड लेटर 
उस पर निशान रहते यहाँ वहाँ 
अचार, आटा, सब्ज़ी, न जाने क्या क्या 

सोचता हूँ, माँ जब 
पढ़ती थीं नानी की चिट्ठियाँ 
उनको अपनी माँ के हाथ का खाना 
कितना याद आता होगा ?

यकीन मानिए, चिट्ठियाँ 
और चिट्ठियों पर पड़े निशान 
आपकी अपेक्षाओं से कहीं अधिक 
क्रूर हो सकते हैं  



Stains on a letter - 1  (Letters to you - 20)

Reminiscences from my diary
May 04, 2025
Sunday, 1830 IST
Stumpfields, Ooty

तुमने पूछा था 
तुम्हें भेजी गईं चिट्ठियाँ 
चिट्ठियाँ ही हैं या 
हैं कविताएँ 

सुनो!
वे न चिट्ठियाँ हैं न कविताएँ 
मेरी डायरी से फाड़े गए पन्ने हैं 
खुद से खुद की बातें हैं 

शिकायतें है, पीड़ है, 
मन का नीर है 
कड़ियाँ हैं अतीत की 
तुम्हारे बीतने की 

तुमने यह भी पूछा था 
इन चिट्ठियों पर
ये हलके पीले, भूरे
निशान कैसे हैं 

तुमने पहचाना कैसे नहीं 
तुम्हारे ही नाम के 
हरसिंगार हैं 
सूखे, मरे हुए 

कि एक दिन जब 
ये फ़ॉसिल मिलेंगे 
वैज्ञानिकों को 
तुम फिर से जी उठोगे 




Thursday, 1 May 2025

Where I flee (Letters to you - 19)

Reminiscences from my diary
May 01, 2025
Thursday 1500 IST
Stumpfield, Ooty

जितना महीन अंतर होता है 
खुलने और उधड़ने में 

उतना ही फ़र्क़ है बस 
भटकने और ग़ुम हो जाने में 

भटकने में रहती है उम्मीद, एक संभावना 
पा जाने की, या मिल जाने की 

और जो ढूँढ पाए तुम्हें कोई 
तो उपजती है टीस दम घोटने वाली  

इसलिए भटको नहीं, खुलो नहीं महज़ 
उधड़ो, खो दो खुद को पूरा का पूरा 

तुम्हें लगता है 
चेहरे ग़ुम हो जाते हैं भीड़ में 

गलत लगता है 
ग़ुम होती है भीड़ चेहरों में कहीं 

मैं कब उधड़ा, फिर कब भीड़ बन गया 
पता ही नहीं चला 

और जब हो ही गया हूँ 
जो बच सकता था होने से शायद 

तो ग़ुम होना चाहता हूँ पूरा का पूरा 
भीड़ सा ही, चेहरों में एक चेहरा 

जिसकी शिनाख़्त कभी भी
कहीं भी न हो पाए 


Tuesday, 29 April 2025

A poem on least favorite food (Letters to you - 18)

Reminiscences from my diary
Apr 29, 2025
Tuesday 2000 IST
Murugeshpalya, Bangalore

मुझे
माँ के हाथ के 
राजमा चावल 
शदीद पसंद हैं 

रंग से लेकर
स्वाद तक 
सब कुछ अलग 
बहुत अलग 

न लाल 
न भूरा 
माँ के राजमा का रंग 
मैरून होता है 

पता नहीं कैसे ले आती हैं 
इतना सुन्दर रंग 
पूछता हूँ 
तो हँस देती हैं बस 

गुजराती ननिहाल है मेरा 
शायद इसलिए या शायद यूँ ही 
माँ का राजमा होता है 
महीन - सा मीठा भी 

डालती हैं उबलते राजमा में 
आधी से भी कम चम्मच चीनी
या शक्कर, और चुटकी-भर से ज़रा ज़्यादा 
गरम मसाला 

राजमा के साथ चावल तो हैं ही 
मुझे पसंद हैं पराठे अजवाइन के 
या मट्ठी या रोटी रुमाली 
या सादा पापड़

कभी कभी तो 
बिना किसी साथ के 
तीन तीन कटोरी राजमा 
खा जाता हूँ मैं 

मुझे, सच, सिर्फ़ 
माँ के हाथ का 
मैरून मीठा राजमा 
बेपनाह पसंद है 

इसी लिए उस रोज़ 
जब तुमने पूछा -
सबसे कम क्या पसंद है खाने में 
तो मुँह से निकल पड़ा था - राजमा चावल 

हाँ ! सबसे कम पसंदीदा भी मुझे 
राजमा चावल ही हैं 
वे जिनमें नहीं होता 
माँ, माँ की भाप का स्पर्श 

Friday, 25 April 2025

All your tricks (Letters to you - 17)

Reminiscences from my diary

Apr 25, 2025
Friday, 2230 IST
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो !

तुम्हारी सभी तरकीबें 
प्रपंच 
कोशिशें 
अफसून 
जादू 
मिन्नतें 

कुछ काम नहीं आएँगी 

जितना जलना है 
जल लो 
जो आज़माना है 
आज़मा लो 

मोहब्बतें हैं 

जितनी तुमसे है, उतनी नहीं 
तो उससे कम भी नहीं 

चाँद से 
जुगनू से 
बारिश से 

मोहब्बतें 

हैं
और रहेंगी 

कि 
बारिशें जुगनू और चाँद 
हैं 
और रहेंगे 


Almost (Letters to you - 16)

Reminiscences from my diary

Apr 25, 2025
Friday, 2045 IST
Murugeshpalya, Bangalore


मैं ठिठक पड़ा था अचानक 

ऐसा कैसे हो सकता है ?

लगभग
वही चेहरा, कद-काठी, 
रंग, आँखें, 
भंवें, होंठ और 
होठों पर पपड़ियाँ 
वैसी ही
लगभग 

दाँत के ऊपर दाँत 
जो चमके सिर्फ़ हँसते हुए  
उसी तरह 
लगभग 

ऑफिस से घर नापते हुए 
पाँव - पाँव 
मेरी दाईं तरफ आता है 
एक छोटा - सा कैफ़े
जिसका सब कुछ हरा है 

पेस्टल ग्रीन 

हल्के हरे रंग का शटर 
हल्के हरे रंग की दीवारें  
खम्बे, काउंटर 
कुर्सियाँ और स्टूल भी 

ऐसे ही एक ऊँचे
पेस्टल ग्रीन स्टूल पर 
तुम्हें बैठे देखा आज 

हाँ ! 
तुम ! लगभग !

मेरी आखें बड़ी 
मुँह खुला 
और दिल धक्-धक् 

मैं बढ़ने लगा था कैफ़े के अंदर
कि तभी 
बाहर निकलते लगभग ने 
काटी मुझे 
चिकुटी 

उसके बाद का पूरा रास्ता 
हँसता रहा मैं 
जैसे कोई बावरा 

लगभग 









Tuesday, 22 April 2025

I met you (Letters to you - 15)

Reminiscences from my diary
Apr 22, 2025
Tuesday, 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कितने मज़े की बात होती 
'गर मैं और तुम में 
होती गुंजाईश 
फेर-बदल की 

कि 'गर कहूँ मैं तुमसे मिला
तो असल में 
मैं होता तुम, और मतलब निकलता 
तुम मुझसे मिले 

कि अपना आपा सँभालने को 
इतनी सी बात भी 
होती काफ़ी और 
मुकम्मल 

 

Monday, 21 April 2025

A poem full of questions (Letters to you - 14) 

Reminiscences from my diary
Apr 21, 2025
Monday, 1615 IST
Ghz 

सुनो, 
मैं 
तुम्हें पल - पल खोजता रहा 
जैसे बौराया जोगी
पर मैं
तुम्हें क्यों ढूँढ नहीं पाया? 

सुनो, 
तुमने कभी 
मुझे
ढूँढने की
कोशिश क्यों नहीं की? 

Sunday, 20 April 2025

Beneath the rust (letters to you - 13) 

Reminiscences from my diary
Apr 21, 2025
Monday 1115 IST
Sre - Ghz


एक आदम दिल को सही तरह से धड़कने के लिए चाहिए होता है सही मात्रा में लोहा

लोहा अगर ज़्यादा हो तो दिल उसे अपने पास महफ़ूज़ रख लेता है

पता ही नहीं चला कब तुम्हारे दिल में इतना जंग लग गया

इतना कि मेरी किताबों में रखे गुड़हल हर मौसम सुर्ख रहते हैं

Friday, 18 April 2025

Glorious Days (Letters to you - 12)

Reminiscences from my diary
Apr 19, 2025
Saturday, 0115 IST
Sre


एक सुबह त्रिशूल पर धूप बिखरी थी 
एक सुबह उँगलियाँ तुम्हारी मेरी पलकों पर 
एक सुबह चार चिनार लिपटे थे धुंध में 
एक सुबह मृत्युंजय को जपते मैं और तुम 

एक दिन गिरी थी बर्फ़ बिन मौसम 
एक दिन झरती बारिश तुम्हारी हथेलियों से 
एक दिन कई - कई तथागत लेटे थे नयन मूंदे 
एक दिन रंग-बिरंगे पत्थर टापते मैं और तुम 

एक शाम नीलगिरि के सिल्हूट में टंका था पूरा चाँद 
एक शाम चार नंगे पाँव सड़क-सड़क 
एक शाम खासी का गीला आसमान था ठेठ गुलाबी 
एक शाम दुनिया सजाते मैं और तुम 

एक रात अचानक 
मैंने डायरी में दर्ज की थी 
कुछ खुशनुमा तारीखें 
कुछ खुशनुमा मैं और तुम 
 

Wednesday, 16 April 2025

A library of faces (Letters to you - 11)

Reminiscences from my diary
Apr 16, 2025
Wednesday, 2145 IST
Sre


आहटों के चेहरे  
छितरे - छितरे से 
बिखरे - बिखरे से 

यत्र तत्र सर्वत्र 

तुम्हारे गुज़रने, और गुज़र जाने की आहट 
छितरी - छितरी सी 
बिखरी - बिखरी सी 

यत्र तत्र 
स 
र्व 
त्र 

Monday, 14 April 2025

Wrapped/Unwrapped (Letters to you - 10)

Reminiscences from my diary
Apr 14, 2025
Monday, 2200 IST
Sre


प्रेम में पड़ो 'गर तो 
खुलो नहीं 

उधड़ो
शिद्दत से 

तार - तार 
ज़ार -ज़ार 

बेपरवाह 
बेधड़क 

कि प्रेम या 
प्रेम की पीड़ ही बनेगी 

अलाव, और  
अलाव की आँच



Saturday, 12 April 2025

Favorite Beverage (Letters to you - 9)

Reminiscences from my diary

Apr 12, 2025
Saturday 2030 IST
Sre


"तुम बात करते-करते यूँ गायब न हुआ करो !"
"अरे! मैं कब गायब ..."
"क्यों! उस दिन? जब हम अमृता की बात कर रहे थे ? तुमने तो तसल्ली दी थी कि अमृता तक मेरी चिट्ठी पहुँच जायेगी! तुम्हारी आस पर ही तो लिखना शुरू किया था  ..."
"बिलकुल पहुँच जायेगी, तुम लिखो तो सही।  हो गयी तुम्हारी छोटी-सी चिट्ठी पूरी ?"
"हुह !"

"बताओ तो! तैयार है अमृता के नाम की चिट्ठी ?"
"नहीं  ..."
"क्यों?"
"हमारी बात कहीं की कहीं चली गयी थी !"
"हमेशा की तरह ?"
"हमेशा की तरह"

"आसमान का लाल देखो। 
"हाँ ! कितना खूबसूरत रंग है !"
"चाय की तलब हो रही है।  पिओगे ?"
"नेकी और पूछ पूछ!"
"मतलब ?"
"कुछ नहीं  ... गंवार!"
"हुह  ..."

"वैसे आजकल एक नई किस्म की चाय का दीवना हूँ मैं "
"कौन सी ?"
"बुराँश की चाय  ..."
"वाह! पहाड़ों वाला बुराँश ?"
"हाँ! पहाड़ों वाला बुराँश  .."
"लाल फूल वाला ?"
"हाँ बाबा! वही  .."
"तो फिर तुम ही बना लो दो कप, हम भी तो देखें  ..."
"ठीक है !"

"वाह ! रंग तो बहुत सुन्दर है।  चटक लाल  ..  कुछ और भी डाला इसमें ?
"चुटकी भर काली मिर्च, आधी से कम चम्मच चीनी, तीन-चार पत्ते तुलसी, और कुछ दाने सौंफ़  .."
"तुम और तुम्हारी काली मिर्च .. "
"जब तक चाय गले  में न लगे, और जीभ पर चिरचिराहट न हो, तब तक चाय का क्या मज़ा  .."
"मियॉँ ! चाय है, चाय ही रहने दो !"
"तुम यूँ करो कि अपनी कड़वी कॉफ़ी बना लो"
"पर फिर इस लाल कप की लाल चाय का क्या होगा ?"
"मैं पी लूँगा "
"पर अब तो झूठी हो गई "
"हुह  ..."

"अगर हम एक ही शहर, एक ही जगह काम कर रहे होते तो यूँ करते कि कॉफ़ी, चाय की छोटी-छोटी शीशियाँ अपने दफ़्तर, अपनी डेस्क पर रखते, और जब कभी तलब उठती, ब्रेक मिलता, तो साथ-साथ सुड़कते  ..."
"बुराँश की पत्तियाँ भी  .."
"हाँ बाबा! बुराँश की लाल पत्तियाँ भी।  उसकी दो बड़ी-बड़ी शीशियाँ रखते।"
"है न! मसरूफ़ियत में भी चाय साथ-साथ, हँसी -ठिठोलियों में भी  ..."
"ऐसा क्यों नहीं हुआ?"
"उसके लिए एक शहर के साथ-साथ, एक ही दुनिया का होना भी तो ज़रूरी था न  ..."
"हुह  ..."

"देखो, बातों बातों में तुमने आधे से ज़्यादा कप खाली कर दिया। अच्छी लगी न?"
"हाँ! अच्छी लगी !"
"मैं न कहता था ! बुराँश के फूलों में पहाड़ बसता है. हिमालय! मैं इनसे बैजनाथ में मिला था। फिर रानीखेत में। नैनीताल ! धीरे-धीरे ऐसी दोस्ती हुई कि नशा बन गयी  ..."
"तुम और तुम्हारे सस्ते नशे  ..."
"हाहा ! रवि भी यही कहता है  .."
"पर जो भी है, चाय अच्छी बनी, और अच्छी लगी !
"बस फिर तय रहा - एक दिन तुम्हारी कॉफ़ी, एक दिन मेरे बुराँश और एक दिन हमारी दूध वाली मसाला-चाय  ..."



Dig Deeper (Letters to you - 8)

Reminiscences from my diary

Apr 12, 2025 
Saturday 1715 IST
Sre


क्या ऐसा होता है तुम्हारे साथ भी कि  ... 

किसी-किसी रात या भोरे-भोर बहुत गहरे सपने आएँ, इतने गहरे कि ... 

उठने के बाद भी देर तक आँखें सूजी रहें, मन भटकता रहे, एक ख़ुमारी छाई रहे  ... 

पर मज़े की बात यह कि सब कुछ ठीक-ठीक याद न आये, तुम करो कोशिश  ...

उस पूरे दिन, और अगले एक-दो दिन, कि जितना जैसा भी याद है, टुकड़ा-टुकड़ा, लम्हा-लम्हा  ...

उन सबको जोड़ो और उकेरो अपना सपना, पर हाथ लगे ... 

सिर्फ़ बदहवासी, अजीबियत, लाचारी कि जितना उतरो थाह में  ... 

उतना ही भूलो सब कुछ, सपनों के अंदर का भी ...

सपनों के बाहर का भी ...  

Wednesday, 9 April 2025

Old Book (Letters to you - 7)

Reminiscences from my diary

April 09, 2025
Wednesday, 2115 IST
Sre


पुरानी किताब नहीं होती 
सिर्फ़ एक पुरानी किताब 

कि उसके अंदर जी रहा होता है  
एक पूरा लम्हा या एक पूरा काल 

कि हो सकता है उसमें किसी अतीत का 
पूरा का पूरा वर्तमान, लेता साँसें चुपचाप 

कि जब पलटें उसके पन्ने तो चिपक जाए 
एक गंध आपके नाखूनों पर, होठों पर, आँखों पर 

कि बौरा जाएँ आप, कोशिश करें याद करने की 
न मृग ढूँढ पाए कस्तूरी, न आप, बस करते रहें कोशिश 

कि इधर-उधर लगाए गए निशान, लिखे गए नोट्स 
बन जाएँ माज़ी में जाने का गूगल मैप

कि कहीं ठहरा हो आँसू , कहीं हँसी, कहीं आधी मुस्कराहट 
और कहीं सुस्ताये हों पूरे के पूरे दिन, और देर ढलती शाम

कि बनाया हो तकिया भी किसी रात, या फिर सपना 
या चिपकाये रखा हो छाती से कभी किसी सफ़र, हमसफ़र

कि उसमें छिपे हों घर वालों से छिपाये प्रेम-पत्र, या कोई पोस्ट-कार्ड
या बनाया हो कभी मरते फूलों का एक सुन्दर कब्रिस्तान 

कि हों शिकायतें दर्ज किसी किरदार से, या घृणा, या कुनमुनाहट 
या हो सिर्फ़ प्रेम, और इतना कि आप खुद हो जाएँ एक किरदार

पुरानी किताब, सच, नहीं होती 
सिर्फ़ एक पुरानी किताब ही 

सुनो,

तुम मेरी सारी पुरानी किताबें लेकर 
अपनी एक पुरानी किताब दोगे ?



Tuesday, 8 April 2025

Ulterior Motives (Letters to you - 6)

Reminiscences from my diary
Tuesday, April 04, 2025
2000 IST, Sre


तुम्हें क्या लगता है

कि मैं जब चाँद को ताका करता  हूँ 
तो क्या मैं 
चाँद को ही देखता हूँ ?

या कि जब भरता हूँ हरसिंगार जेब में 
तो क्या मैं 
हरसिंगार ही चुनता हूँ ?

जब लेता हूँ किसी बरगद को अपनी बाहों में 
तो क्या मैं 
पेड़ को गले लगाता हूँ ?

या लिखता हूँ कोई कविता 
तो क्या मैं 
वाकई लिखता हूँ कोई कविता ?

कि उस रोज़ जब दीवार पर उकेर रहा था मौर्या 
तो क्या मैं 
महज़ रंग रहा था सफ़ेद चूना ?

खैर  .. 

सुनो !

तुम भी 
गाहे - बगाहे 
मुझसे बात करने की कोशिश न किया करो !



Monday, 7 April 2025

In the valley - somewhere in Kashmir (Letters to you - 5)

Reminiscences from my diary
April 07, 2025
Monday 1215 IST

सिंधु घाटी की सभ्यता में 
ज़रूर ही 
एक सिंधु रही होगी 
और एक घाटी 
और एक सभ्यता भी 

ज़ाहिर-सी बात है 

लेकिन तुम्हें यह न पता हो शायद 
कि उस सिंधु को 

मैंने छुआ भी है 
चखा भी 
और नंगे पाँव लाँघा भी

और मैंने चुनी है सिंधु से 
बर्फ़ 
मछलियाँ 
चिनार
पत्थर 
काई 
और आँच 

अपने साथ भी 
तुम्हारे साथ भी 

सिंधु और उसकी घाटी 
एक जन्म का खेला थोड़ी ही है?

Saturday, 5 April 2025

Unfinished manuscript (Letters to you - 4) 

Reminiscences from my diary

Apr 5, 2025
Saturday, 1930 IST
KIA, Bangalore

स्मृतियों के दस्तावेज़
जब स्याही - स्याही 
बुनते हैं
तो
आत्मकथा कहलाते हैं! 

सुनो! 

हम यूँ करेंगे कि
तुम मेरी आत्मकथा लिखना
और
मैं लिखूँगा तुम्हें

फिर
किसी साहित्यिक गोष्ठी में 
कभी कहीं

हम 
अपनी - अपनी 
अपूर्णताओं का उत्सव मनाएँगे! 

Thursday, 3 April 2025

Letter to my favorite poet (Letters to you - 3)


Reminiscences from my diary

April 03, 2025
Thursday, 2340 IST
Murugeshpalya, Bangalore


"सुनो, तुम!"
"हाँ सुनाओ!"
"एक खत लिखने का सोच रहा हूँ !"
"मेरे लिए?"
"हुह!"

"फिर?"
"सोच रहा हूँ अमृता के नाम एक चिठ्ठी लिखूँ, ज़्यादा बड़ी नहीं, छोटी सी, ऐसे ही !"
"हाँ! ज़रूर लिखो! मैं पहुँचा आऊँगा!"
"हाँ! पता है ! तुम्हारे ही भरोसे लिख रहा हूँ !"
"पर अचानक से क्यों ?" 

"अचानक से तो नहीं ! याद है, एक बार पहले भी लिखा था एक खत? एयरपोर्ट से? हॉन्ग कॉन्ग जाते हुए? उस समय रसीदी टिकट हावी थी दिल-ओ-दिमाग पर  .."
"इस बार क्या हुआ? फिर से पढ़ी रसीदी टिकट? या उनके - इमरोज़ के खत?"
"एक बार जून की किसी दोपहरी कॉलेज लाइब्रेरी में शेल्फ से एक पतली किताब उठा ली थी - नज़्मों जैसा कुछ था! यूँ ही, बिलकुल यूँ ही,  एक पैन पर रुक गया था मैं।  जो लिखा था उसे मैंने वहीँ खड़े-खड़े आठ-दस बार पढ़ा, फिर झट से अपनी डायरी में लिख लिया था !"
"ऐसा क्या पढ़ लिया था?"

"फूलों का एक काफिला था, आज वह रेगिस्तान से गुज़रा 
मेरी दोस्ती के ज़ख़्म तेरी याद ने सीए थे 
आज मैंने टाँके खोलकर वह धागा तुझे लौटा दिया 
मेरी रात जाग रही है तेरा ख़याल सो गया!"

"हाय! यह तो बहुत सुन्दर है!"
"है न! मुझे याद है वो तड़प जो इस नज़्म को पढ़कर महसूस की थी मैंने! कवर देखा, तो पाया किसी अमृता प्रीतम ने लिखी हैं ! ऐसे आईं अमृता ज़िन्दगी में ! यूँ ही ! अचानक! 
"मेरा आना भी तो ऐसे ही हुआ था ! अचानक!"
"और जाना भी ! हुह !"

"अच्छा, क्या लिखने का सोचा है?"
"बहुत कुछ! पर कुछ लिखने बैठता हूँ तो न ओर मिलता है न छोर ! मैं समझ नहीं पाता क्या लिखूँ , क्या क्या लिखूँ!"
"मैं मदद करूँ ?"
"हाँ ! बिलकुल! बताओ, कहाँ से शुरू करूँ?"
"ग्रेटिट्यूड से कर सकते हो! उनके आने से ही तो कविताओं की शुरुआत हुई ! है न?"
"हाँ! उनका अचानक से आना, तुम्हारा अचानक से जाना ! दोनों बातें साथ-साथ ही घटी थीं!"
"हुह !"

"ठीक है वैसे! खत की शुरुआत शुक्रिया से करूँगा कि न होती अमृता की नज़्में, कहानियाँ, उपन्यास, और रसीदी टिकट, तो मैं कैसे जूझ पाता उन दिनों से जिनका शून्य अन्यथा किसी भी तरह भर ही न पाता!"
"कोई प्रिय कविता?"
"एक हो तो बताऊँ! 'मैं तुम्हें फिर मिलूँगी' को इतनी बार पढ़ा कि मुँह-ज़बानी याद हो गयी। उनके सपनों की कड़ी पढ़कर लगता है शिव और साईं यहीं कहीं हैं ! कहानियों के किरदार ऐसे कि लगता है आस-पास के लोग उठकर किताब के भीतर चले गए हों! रसीदी टिकट तो अपने आप में प्रेम-ग्रन्थ है ही ! अमृता के शब्दों में अपना मौन पाया मैंने ! अमृता की टीस में तुम्हारा बिछोह  .."

"और वो सिगरेट वाली बात? उसका ज़िक्र भी कर दो  .."
"सही याद दिलाया ! उनसे कुछ सिगरेट के बड माँग लेता हूँ ! मंदिर में माला रखी है जिस पर तुम्हारी उँगलियाँ फिरकर साईं को एक सौ आठ बार याद करतीं थीं ! वहीँ रख लूँगा सिगरेट के बड भी  .."
"ओह ! मुझे लगा था वो माला मैंने कहीं गुमा दी  .."
"किसी का गुमा हुआ कल किसी और का आज बन जाता है  .. "
"समझ नहीं आया !"
"हुह !"

"अच्छा! और क्या लिखोगे?"
"और लिखूँगा कि मैं दीवाना हूँ अमृता का ! इमरोज़ की तरह न सही, इमरोज़ से कम भी नहीं  ..  या फिर जैसे अमृता मीरा थी साहिर की  .. कि जैसे इमरोज़ साथ न होते हुए भी उनके हर सफ़र में साथ रहे, और जैसे अमृता सींचती रहीं साँस साहिर की आँच से  ..  वैसे ही  ..  हाँ, सच कहता हूँ, वैसे ही, अमृता भी मेरे इर्द-गिर्द ही रहती हैं , तुम्हारी तरह !"

"रुको! यह चिट्ठी मेरे लिए है या अमृता के लिए ?"
"मैं भी यही सोच रहा हूँ  ..."
"क्या?"
"कि तुम और अमृता एक कब हो गए  ..."



 

Wednesday, 2 April 2025

Forgotten picture(s) (Letters to you - 2)

Reminiscences from my diary

April 2, 2025
Wednesday, 2230 IST
Murugeshpalya, Bangalore

एक बात बताओ 
तुमने और मैंने 
कभी कोई तस्वीर 
साथ क्यों नहीं खिचवाई?

कि 'गर खिचवाई होती 
तो 
मैं यूँ करता कि 
तुम्हारे जाने का बाद 

तुम्हारी तस्वीर को 
तक-तक ताकता 
हँसता रोता 
बातें शिकायतें करता 

बुनता उम्मीदें 
इंतज़ार और उन्स 
रंग-रंग रेशा-रेशा 
तुम्हें बनाता बुकमार्क 

और फिर किसी एक दिन 
किसी किताब या डायरी में 
चिनार के पत्ते के साथ रख 
भूल जाता 

कि 'गर खिचवाई होती 
तो आज 
भूली-बिसरी तस्वीरों पर 
मैं भी कुछ लिख पाता 

Tuesday, 1 April 2025

Soap bubbles (letter to you - 1)

Reminiscences from my diary

April 01, 2025
Tuesday, 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore


बाबा जो थे हमारे  
पिता के पिता 
जाते भादो की शामों में 

हम भाई-बहन को 
रिक्शा में बिठाते 
और गुग्घा पीर के मेले ले जाते 

कल्पना टाकीज़ के आस-पास लगता था
शायद, या फिर दर्पण सिनेमा 
ठीक-ठीक नहीं याद 

जो याद है वो ये कि 
हम चहकते हुए जाते 
चहकते हुए आते 

न मुझे, न ही बहन को मेरी 
खिलौनों का शौक रहा 
हम बाबा से ज़िद करते 

झूलों की 
कई-कई झूले झूलते हम 
झूलों से जितनी बार बाबा दिखते 

उतनी ही बार 
हम उन्हें पुकारते, चिल्लाते 
उनकी तरफ हाथ हिलाते 

बाबा तब तक पान चबाते 
कभी-कभी सिगरेट पीते 
और कभी लिम्का भी 

झूले लेकर थोड़ी देर तक 
हम हाँफते, फिर साँस भरते
फिर बाबा की ऊँगली पकड़ चल पड़ते 

छोटे गुब्बारों पर निशाना साधने 
बुढ़िया के बाल खाने 
नंदन चम्पक चंदामामा खरीदने 

इन सब क्रिया-कलापों में 
हम तीनों की नज़रें ढूँढती रहती 
उसको जो बेच रहा हो बुलबुले 

कि एक पाइप जैसी चीज़ को 
साबुन के पानी में डुबाओ और फूँक मारो 
तो आपके चारों तरफ 

बुलबुले
हसीन बुलबुले 
हसीन रंगीन बुलबुले 

छोटे बड़े बुलबुले 
पुट् से फूटते बुलबुले 
धनक समेटे बुलबुले 

जैसे ही हमें दिखाई देता 'बुलबुले-वाला'
हम बौरा जाते, बाबा भी, सच 
और झट् से खरीद लेते पांच-छः पैकेट 

वापसी में, और वापसी के बाद घर में 
बुलबुलों की बारात जिमी रहती 
जहाँ फूटते साबुन का पानी छोड़ जाते 

माँ बड़बड़ाती 
बाबा मुस्कुराते 
पिता अदृश्य 

फिर एक साल बाबा बीमार हुए 
हम गुग्घा पीर के मेले नहीं जा पाए 
बाबा ने घर में ही की कोशिश 

ठीक अनुपात में साबुन का पानी घोला 
लोहे के तार से पाइप भी बनाया 
फिर फूँक मारी, जैसे जादूगर 

बुलबुले बने
पर वैसे नहीं 
कहीं कुछ कमी थी, हम नहीं जान पाए  

हम निराश हुए 
बाबा भी 
फिर और कुछ महीनों बाद 

बाबा चले गए 
बुलबुला जैसे एकदम 
गायब हो जाता है - पूरा का पूरा 

हम भाई-बहन फिर कभी 
मेले नहीं गए 
नहीं उड़ाए बुलबुले कभी 

सुनो, 
उस एक दिन जब 
तुमने कहा था कि 

तुम्हारी अम्मा नहीं रहीं 
पिता की माँ 
मैं तुमसे पूछना चाहता था 

तुमने भी 
अपनी अम्मा के साथ 
बुलबुलों में ज़िन्दगी जी है ?



Friday, 28 March 2025

Prayers, unfulfilled!

Reminiscences from my diary

March 28, 2025 
Friday 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कैसी होती होंगी
वे प्रार्थनाएँ 
जो कितनी ही मुद्दत 
और शिद्दत से की जाएँ 
पूरी ही नहीं होतीं ?

मैं अक्सर सोचा करता हूँ 

क्या होता होगा इनका ?
क्यों होता होगा ऐसा ?
कहाँ से आती होगी इतनी 
बदनसीबी 
और धीर ?

ईश्वर बधिर है क्या ?
या लापरवाह ?
या गलत ?
या सही इष्ट पर गलत पता ?

और शायद इसलिए 
सही पता ढूँढ़ते ढूँढ़ते 
राह ग़ुम जाती होंगी 
ऐसी प्रार्थनाएँ 

किसी घने जंगल में 
क्षितिज के आस पास 
या मरीचिका खोजते-खोजते कोई 

हो सकता है इतना थक जाती हों कि 
बिखर जाती हों टूटकर 
टुकड़ा-टुकड़ा 
तार-तार 
जैसे 

मिटटी की गागर गिरती है छन्न से 
जश्न से पहले गले का हार 
या कोई प्रेमी 

यह भी हो सकता है कि 
जल जाती हों ये प्रार्थनाएँ 
धुआँ-धुआँ 
जैसे जलाई जाती हैं 
अधलिखी कविताएँ और 
कभी न पढ़ी गयीं चिट्ठियाँ 

किसी उल्का से 
जुगनू से 
या अपनी ही आँच से 


ऐसी प्रार्थनाएँ 
साँस की आस लिए 
भटकती रहती हैं 
कल्पों कल्प 

गुरबानियों में 
किन्नरों के स्पर्श में 
या तथागत के ध्यान में 

यूँ भी तो हो सकता है कि 
ये प्रार्थनाएँ ही खोखली हों ?
सच्ची न हों ?
या फिर 
प्रार्थना प्रार्थना ही न हो
हों अनगढ़ आरज़ू 
और इसलिए ग़ुम हो जाती हों 
किसी ब्लैक होल में 

कितने ही विकल्प हैं 
कितनी 
ही
सम्भावनाएँ 

मैं प्रार्थना करता हूँ 

ऐसी सभी प्रार्थनाएँ 
जो पूरा होने की आस लिए 
ब्रह्माण्ड में भटक रही हैं 
किसी सुन्दर साँझ
सदा-सदा के लिए 
कैवल्य पा जाएँ !




Friday, 7 March 2025

I don't need to find you anymore!

Reminiscences from my diary

Mar 07, 2025
Friday 2245 IST
Murugeshpalya, Bangalore


शुरू-शुरू में 
आलम ऐसा रहा कि 
मैं अपने आस-पास

हर भीड़
हर चेहरे में
हर सड़क, हर मोड़ 
तुम्हें तलाशता

ध्यान से
शिद्दत से 
बेतहाशा 

जानते हुए भी कि 
तुम नहीं यहाँ 
कि तुम कोसों दूर 
या कल्पों 

फिर भी 

किसी की नाक तुम्हारे जैसी 
किसी की हँसी 
किसी की गंध या 
कद-काठी, चाल 

पर 
कोई भी कभी भी 
पूरा का पूरा 
तुम-सा नज़र नहीं आया 

बुदबुदाता रहा मैं 
कई कई अफसून 
कि 

धुँआ उठे 
और तुम आ जाओ 
छन से
झट से 

लोग 
मुझे पागल समझते 
मैं भी 

खुद को समझता 
पागल, सनकी, 
अजीब 

तुम 
कभी नहीं मिले 
तुम 
कहीं नहीं मिले 

फिर एक दिन 

शायद कहीं कोई 
तारा टूटा
रोया चाँद या 
मुस्कुराया साईं 

और 
तुम्हें खोजने की
हद 
पार हो गयी 

उस दिन 

मैं 
बना 
तुम 

... 

अब मैं तुम हूँ 
कतरा - कतरा 
पूरा का पूरा 

और यह 
कितनी खूबसूरत बात है !

 


Thursday, 27 February 2025

For Babusha, and her letters


Reminiscences from my diary

Feb 27, 2025
Thursday, 2015 IST
Murugeshpalya, Bangalore


बावन चिट्ठियाँ थीं 
बावन कबूतर 
बावन ही हवा के झोंके 
किस्से, कहानियाँ और 

मुस्कुराहटें 

पीछे रह गयी 

ख़ाली मेज़ 
बची-कुची स्याही
छाती में दबी चीख 
ढेर सारा अवसाद
परछाइयाँ  

और 

किरच-किरच मैं !
 

Tuesday, 18 February 2025

I am what I read!

Reminiscences from my diary

Feb 18, 2025
Tuesday, 2215 IST
Murugeshpalya, Bangalore


कभी-कभी सोचता हूँ कि अपने प्रिय लेखकों को, कवियों को, कहानीकारों को पढ़ते-पढ़ते एक समय के बाद क्या हम उनके जैसे ही नहीं हो जाते? कभी पूरे-के-पूरे, कभी पूरे से थोड़ा कम, कभी कुछ-कुछ  ..   

क्या आपने भी महसूस किये हैं वे किरदार, वे लोग, जो कहानियों में, उपन्यासों में गढ़े होते हैं और धीरे-धीरे पन्ना-दर-पन्ना  किताबों से निकल बाहर आ जाते हैं - दबे पाँव ! चुपचाप ! वे जगहें, परिवेश, मौसम, आपके आस-पास बिखर जाते हैं ! आप विक्रम  .. वे बेताल  .. 

एक दुनिया में कई-कई दुनियाँ ! यहाँ भी आप ! वहां भी आप ! 
है न ! जादू ! तिलिस्म !

.. मैंने देखा है अल्मोड़ा की पहाड़ियों में  .. एक बड़े बरगद के नीचे गुनगुनी धूप सेकती शिवानी की कृष्णकली को  .. कभी-कभी किसी अदृश्य प्रभाकर से निरंतर बतियाती रहती  .. कभी एक दम से मौन साध लेती  ..  कली को देखते-देखते मैं ढूंढने लग जाता उसके प्रभाकर को  .. ज़्यादा दूर नहीं गया होता तो पकड़ कर उसके पास ले आता  .. 

.. मैं होना चाहता था अरुन्धती का राहेल, या एस्थर  .. बचाना चाहता था अपनी माँ का लावारिस होना, सम्मान के साथ करना चाहता था उसका दाह -संस्कार  ..  मैं बदलना चाहता था अंजुम का बचपन, सहेजना चाहता था उसकी किन्नरता, बनाना चाहता था उसके लिए कब्रिस्तान में एक छोटा-सा घर  .. 

.. सोचा करता हूँ निराला को, निराला की सरोज को, भिक्षुक को  ..  उनके अंत और अनंत के बीच एक बिंदु बनने की अभिलाषा जब तब मचल जाती है  .. और मचलते हैं आँखों में बाबा नागार्जुन, हिमालय पर घिरते बादल और उनकी कविताओं में छिपे इंद्र, कालिदास और कुबेर  .. क्या पता उनका प्रिय शापित चकवा मैं ही हूँ  .. 

.. यूँ भी मैंने देखा है ढेर सारा हिमालय - पाँव-पाँव, गाँव-गाँव  .. चखी है गंगा गोमुख से जोनो लिनेन के साथ  .. जब-जब जोनो ने अपने मरे छोटे भाई को याद किया , तब-तब हमने आँसू साझे  .. मैंने पहाड़ों से और प्यार करना सीखा  .. किसी ज़माने में डेर्वला  के साथ भी इन्हीं पर्वतों से, ख़ौफ़ज़दा पगडंडियों से, सुन्दर घाटियों से गुज़रा था मैं, वह भी साइकिल पर  .. जानते हो कहाँ से?  सीधा आयरलैंड से  .. सच  .. 

.. शिव्या को पढ़ते-पढ़ते लगा कि स्पिति के की-गोम्पा में मैं भी रहा हूँ, बीस के बीस दिन  - या तो बराबर के किसी कमरे में, या फिर ऊपर या नीचे  .. नंगे पहाड़ों के ऊपर पूरा चाँद देखा है मैंने  .. मैंने भी छानी है ख़ाख़ अमेज़न के जंगलों में शिव्या के साथ .. चखा है शमनों का रस  ..  झूमा हूँ ख़ूब मैं भी  .. 

.. कोन्या जाना चाहता हूँ  .. मुद्दत से  .. रूमी की कब्र देखने से पहले शम्स के निशान ढूँढना चाहता हूँ  .. सेमा करते-करते होना चाहता हूँ अनंत  .. या शून्य  .. शफ़ाक़ की एला और शफ़ाक़ के अज़ीज़ के खतों को छूना चाहता हूँ,  पढ़ना चाहता हूँ  .. चुराना चाहता हूँ  .. एक बार इसी तरह चुपचाप चुराए थे ख़त अमृता के, और इमरोज़ के भी  ... जब घूमा था अमृता के साथ यूरोप  .. और इमरोज़ के साथ बम्बई  .. रसीदी टिकट में रखा चीनी बुकमार्क हूँ मैं  .. 

कितनी ही शामें मुराकामी के साथ बितायीं  .. कितनी ही रातें डूबा रहा नार्वेजियन वुड में  .. रीको, तोरु, नायको की उदासियाँ आज भी मेरी बालकनी के फ़र्श पर बिछी हुई हैं  .. बिछा है बहुत सारा जापान मेरे इर्द-गिर्द  ..  समझा कि बिना वजह उदास होना पाप नहीं, आपके बस में भी नहीं  .. 

अनघ की सभी कहानियाँ धूप की मुँडेर सी हैं - कभी सच, कभी छलावा  .. देखा कभी दरख्तों से टपकता ख़ून  .. पी कभी एक बालिश चांदनी  .. संजोया कभी शाहबलूत का पत्ता  .. और रखा कभी धुएँ का नाम शाम  .. 

.. बाबुषा की बावन चिट्ठियों में बसे मृत्युंजय - लगता है - आस-पास ही है  .. इतने पास कि पुकारूँ तो फट्ट से आ जाये  .. पर नहीं आते मृत्युंजय  .. न ही आती है तस्लीमा की शैफाली  .. वह आवाज़ पर आवाज़ देती रहती हैं, मैं आवाज़ पर आवाज़ देता रहता हूँ  .. कहाँ हो शैफाली? कौन हो शैफाली?

.. हालाँकि मैंने अभी तक सुकून से नहीं पढ़ा मैरी ऑलिवर को, पर सुना है बहुत कुछ लिन से .. और उस बिना पर चाहता हूँ कि जब भी पढ़ूँ, उनके जैसा हो जाऊँ, या फिर बन जाऊँ मोहन राकेश की डायरी का मोहन राकेश  ..  वैसे ही जैसे बना था अखिल लाल किताब पढ़ते हुए  .. या हुआ था नेरुदा पढ़ते हुए गीत की आलाप में गिरह  .. 

.. मैं प्रसाद का कंकाल हूँ  .. और मुंशीजी का होरी  ..  टैगोर का गौरा हूँ  मैं  .. और इशिगुरो का टेस्ट-ट्यूब बेबी भी  .. नवल की कहानियों में ग़ुम पागल तिब्बती हूँ मैं  .. मैं हूँ गुरनाह के उपन्यासों में महकी कसक  .. मैंने नापी है वितस्ता चंद्रकांता के साथ  .. और खोया है खुद को अनुराधा के रानीखेत में  .. अलमेडा के साथ देखी है लंका सात दिन और सात चाँद-रातें  .. और देखा है बुरहान का इस्तानबुल  .. 

मैं मैं नहीं हूँ  .. बिलकुल भी नहीं  .. और जो भी हूँ न, एक जगह नहीं हूँ  .. यह कितनी सुन्दर बात है !

एक दिन यूँ भी होगा कि  .. 

.. निर्मल को पढ़ते-पढ़ते, उन्हें सोचते-सोचते, उनसे मन-ही-मन बातें करते-करते  ..  दिख ही जायेगी मुझे चीड़ों में चाँदनी  .. सुनाई देगी धुंध से उठती धुन  .. और पा जाऊँगा मैं एक चिथड़ा सुख  ..! 


Tuesday, 11 February 2025

The Sun & The Water

Reminiscences from my diary

Feb 07, 2025
Friday 2345 IST
Mint, Varkala


उस साँझ 
सूरज को 
न जाने क्या सूझी
कि 

पूरी तरह
छिपने से पहले 
समंदर पर चलकर
पग-पग 

मेरे पास आया 
और 
रेशा-रेशा छूते हुए 
मेरी आँखों में भर गया 

मैं
मुस्कुराया 
सकुचाया 
बहमाया 

तुम ठहरे
तुम 
तुम्हारे पते पर 
कैसे रहता कोई 

आँखें बहने लगीं 
सूरज का उन्स
मेरे गालों पर 
लुड़कने लगा 

जाते-जाते 
मेरा माथा चूम गया 
और दे गया मेरी पीठ पर 
पानी के निशान 

सूरज नहीं जानता 
पानी पर
पानी या उसके निशान 
नहीं ठहरा करते 

ख़ैर 

अब मेरी देह में 
तुम्हारे साथ-साथ 
कहीं-कहीं 
धूप भी पलती है 


Tuesday, 4 February 2025

Heritage

Reminiscences from my diary

Feb 04, 2025
Tuesday, 2345 IST
Murugeshpalya, Bangalore  


चार दिन की चाँदनी 
                अंधेर नगरी 
टेढ़ा आँगन 
                शैतान का घर  
खिसियानी बिल्ली 
                अकेली मछली 
छूमंतर चिड़ियाँ 
                 सफ़ेद हाथी
कागा हंस ऊँट मगर 
                आम खजूर करेला अनार 
गंगाराम की गंगा 
                भानुमती का कुनबा 
चोर और कोतवाल 
                नाचती राधा औ' नयनसुख 
अधजल गगरी 
                काठ की हाँडी 
बाँस और बाँसुरी 
                हथेली पर सरसों 
गरजते बादल 
                धूप, छाया और माया 
ज़ख़्म ज़ख़्म 
                नमक नमक 

Friday, 31 January 2025

Shards Shards Everywhere!

Reminiscences from my diary

Jan 31, 2025
Friday 2130 IST
Murugeshpalya, Bangalore


किर्चियाँ हैं 

अजीब सीं 
बहुत सारी 
बहुत ही सारी 

इधर उधर 
यहाँ वहाँ  
सिमटी हुईं, बिखरी हुईं 

ठीक ठीक नहीं पता 
हैं भी, या महज़ 
महसूस होती हैं 

बिस्तर पर 
तकिये पर 
मेज पर 

बुद्ध के स्टेचू पर 
लैंप-पोस्ट की रोशनी में 
बिखरी किताबों के आस-पास 

डायरी में 
घड़ियों में 
कैलेंडर की तारीखों पर 

खिड़की के पर्दों पर 
चौखट के ऊपर 
दरवाज़े की ओट में 

मनीप्लान्ट पर ठहरे पानी में 
मोगरे की मिट्टी में 
उजड़े गुड़हल की गंध में 

मंदिर में 
देवताओं की तस्वीरों पर 
प्रार्थनाओं की चुप में 

आँख नोचती धूप में 
सिर से गुज़रते आसमान में 
साँस में, साँस -साँस में 

होठों पर 
नाखूनों में 
छाती के अंदर कहीं 

घाव-घाव घुसती 
पोर-पोर पिरती 
रेशा-रेशा रिसती 

किर्चियाँ 
किर्चियाँ 

!!